Friday, December 30, 2011

बजी द्वार की साँकल ....... गीता पंडित

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बजी द्वार की साँकल फिर से
मन को कैसे धीर धराये |


आज रैन की इस बेला में  
बिन आहट के बादल छाये,
मन की कोपल फिर से भीगीं 
फिर कंपन के मादल भाये,


सुधि के  सिंधु नाव चले फिर 
फिर-फिर मन में पीर भराये |


मिलन  हमारा पलभर का था
जीवन भर की रही कमाई,
नेह - निधी ये कैसी जिससे 
अपने मन की हुई सगाई ,


आज झरोखे फिर से चौंके
खडा कौन जो नीर बहाये |
बजी द्वार की साँकल फिर से
मन को कैसे धीर धराये ||




गीता पंडित   
(मेरे आने वाले संग्रह से )         

Tuesday, December 27, 2011

मेरी लेखनी से .... .दिसंबर के फेसबुक पर स्टेटस......गीता पंडित

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ज़िन्दगी ___

आपकी पायल के घुँघरू सुन ना पाये हम कभी 

है प्रतीक्षा मेरे घर पर तुम कभी तो आओगी 

झीनी सी इस चूनरी को, है सम्भाला यत्न से 

एक दिन मैं कहती तुमसे साथ तुम भी गाओगी ..
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उम्रभर लिखता रहा जो खत वो वापस आ गये 

ज़िंदगी ! तेरा पता बदला था कब अनजान हूँ 

मैं यही था मैं यहीं हूँ, पर ना जाने क्या हुआ 

जिंदगी ! तेरे ही घर में, आज मैं महमान हूँ | 

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जीवन क़ागज़ की एक पुड़िया


उस पुड़िया में प्रेम भरे कण 


वही हरेक जन को मिल जायें 


बोल और क्या चाहे रे मन ! ..
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ओस की बूँदें पड़ीं जो धरती के तपते तवे पर 


धूआँ ऐसा फैला देखो, हर दिशा कुहरा गयी ....
......








कभी-कभी पीड़ा की पायल ऐसे सुर में बज उठती है


सारे स्वर मध्यम हो जाते एक अकेला स्वर है भाता 


मीरा के एकतारे पर तब गुनगुन करके मनवा गाता


कौन सुनहरी चादर ओढ़े मन को आकर है सहलाता ...


........


     






"रख देना दो शब्द अगर अधर मूक हो जाएँ तो, 


हर मन के द्वारे जाकर सुमन एक तो रख देना "
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आ अधरों के नाम हँसी की, एक वसीयत कर जाएँ,


अगले पल का नहीं पता है जाने क्या गुल खिल जाएँ |
......










अंगडाई लेती भोर 

हौले से निकालती है 

अपने पर्स से 

किरणों से बना टेडी बीयर

और रख आती है सुबह के द्वार पर

तमस भरा आकाश

खिलखिला पड़ता है

स्वप्निल हो आती हैं अवनि की पलकें

जग के आँगन में बज उठते हैं जल तरंग

नया उल्लास,

नयी उमंग हिलोरें लेती है

और आशा की सुकुमारी

सात घोड़ों पर सवार हो

निकल पड़ती हैं दिग - दिगंत के भ्रमण पर ...

.......










सर्दी का मारा है सूरज 

कम्बल ओढ़े पड़ा हुआ है

ऊषा रानी इसीलियें तो

कोटर में अपने चुप हैं ..
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लीप पोतकर आँगन देखो 

द्वारे पर रखी ढिबरी है

पथ ना बिसरा जाये मीत !.

.....










घुटी - घुटी सी श्वासों मे आस किरण है शेष अभी 

उठ चलना चल मीलों है थक ना जाना देख अभी .

.......








सुबह के आँगन में किरणों की अगवानी करता मन,


पवन झुलाये झूले जिनको ऐसे हर्षित हों तन - मन .
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पत्ता टूट गया टहनी से, तरुवर की आँखें हैं नम 


फिर से जीवन दोहराएगा जीवन का एक ये ही क्रम ..
......








पवन तुम्हारी बातें बोले 


दिनकर अंखियाँ तुमसे खोले 


तुमसे ही तो मेरे मन की 


मैना मेरे अंतर्मन डोले 


आज उडूं मैं चिडिया बनकर 


तुम भी मेरे साथ में आओ

हौले-हौले मन सितार पर

प्रेम भरी एक सरगम गाओ 
.....








नेह नयन में मूक रहे क्यूँ 


प्यास ये कैसी है ..
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गीता पंडित .



















Thursday, December 22, 2011

धूप को आना है आये .... गीता पंडित

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हर सुबह 
लेकर जो आये
भोर की पहली किरण,

जाग उठें 
फिर से मन के,
खोये हुए सारे सपन,

आस्था 
और नेह की 
बाती जले जलती रहे,

और थोड़ी 
सी महक दे
जाये बासंती - पवन,



धूप को 
आना है आये
तुम उसे ना रोकना,

छाँव बन 
कर विटप की मन,
अपने ऊपर ओढना,

हाँ थकाने 
आयेंगे पल
अंक में भरकर हिमालय,

स्वेद-कण 
मोती की तरह 
हौले - हौले पोँछना,



ऐसे सौरभ 
की घड़ी फिर
से ना आये क्या पता,

आज है जो 
गीत सरिता
कल भी होगी क्या पता,

बाँध लो 
मन इन पलों को,
आज छंदों के वसन में,

और 
उतारो गीत में तुम 
प्रेम का पूरा पता ||


 गीता पंडित

(मेरे काव्य संग्रह से )  

Sunday, December 4, 2011

एक अभूली कहानी " निर्झर " जो श्वासों का गीत बन गयी ....... गीता पंडित



अंखियाँ बैठी हुई द्वार पर मन किसको यूँ आज पुकारे,  
रेत सरीखा जीवन कैसा पल पल मन के नयन निहारे ...... ...


कभी-कभी श्वास लेना भी इतना दूभर क्यूँ हो जाता है प्रश्न केवल प्रश्न जो हमेशा
अनुत्तरित रहते हैं जीवन केवल एक पहेली बनकर आपके सामने रहता है चाहकर
भी, जीवनभर सुलझाते सुलझाते ताना-बाना उलझता जाता है जीवन का सौंदर्य,
जीवन की वो प्यास, वो ललक कहाँ गायब हो जाती है ... 


किससे पूछें....?



आज का ही दिन 4 दिसंबर ____ रोड एक्सीडेंट और ___ 20  वर्ष का प्यारा सुमन
जिसे नेह से " निर्झर ' कहते थे टहनी से बिछड़ गया |
टहनी तो टूटी ही, डाली-डाली बिलख पड़ी, बरगद की पीठ झुक गयी | आह !!!!!!!!!!!!!



" मौन पलों का स्पंदन " मेरे गीत नवगीत संग्रह से एक कविता आज उस जैसे
हर सुमन के , हर टहनी के , हर डाली के और हर बरगद के नाम _____ 



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तुम थे तो दो चार बात मैं
तुमसे कर लेती थी लेकिन 
आज तुम्हारे बिन किससे मैं मन की बात कहूंगी बोलो |

सूना द्वारा राह निहारे 
ड्योढ़ी नयनन नीर बहाये
भरे अंजुरी सारी बातें
प्राचीरों पर लिख-लिख आये 

अँखियों के पथ धुंधला आये,  कैसे तुम्हें पढूंगी बोलो |

गंध रची वो ही मन-आँगन 
वो ही रंग रचे मन फागन 
पागल होकर राह तकें जो
कहाँ गये मन के वृन्दावन 

एकाकी सूने पल - पल में,  कैसे तुम्हें गठूंगी बोलो |

जन्म-मरण का खेल पुराना 
माटी का तन मान रही हूँ 
गीता का संदेश भी मन से 
मन के अंदर जान रही हूँ 

फिर भी तुम बिन बेकल अंतर,  कैसे धीर धरूंगी बोलो |
आज तुम्हारे बिन किससे मैं मन की बात कहूंगी बोलो ||
.......



" निर्झर की याद में "



" पत्ता टूट गया टहनी से, तरुवर की आँखें हैं नम 
फिर से जीवन दोहराएगा जीवन का एक ये ही क्रम |



गीता पंडित 

Saturday, December 3, 2011

ओ मृत-प्राय पल ! ..... गीता पंडित

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मेरी बूढ़ी होती हुई इन अस्थियों को
अगर दे सकते हो तो दो 
वो आस्था, वो विश्वास, वो जिह्वाएँ 
जिनसे उड़ सकूं पहले जैसे
ढो सकूँ अपने अंतर में तुम्हें
सह सकूँ तुम्हारी निढाल देह
देख सकूँ तुम्हारी मृत्यु
अपने ही मन की शैय्या पर
शोक किये बिना ,
बिना किसी अवसाद के |

होना है तुम्हें फीनिक्स
ओ मृतप्राय पल !
जाओ और बनो मेरी मुक्ति के देवदूत
मुझे जन्म लेना है अभी तुम्हारी राख से |

नोचनी हैं भूतकाल से, वर्तमान से, आगत से
वो शंख-ध्वनियाँ
जो फूँक सकें 

फिर से पान्जन्य-शंख
मेरी शिराओं में दौड़ सकें 

रक्त के फव्वारे
मेरी रीढ़ में गढ़ सकें बाँस
ताकि सीधी होकर मेरी पीठ
देख सके तुम्हारी प्रश्न्चिन्हित आँखों को
दे सके तुम्हारे
हर उचित - अनुचित प्रश्न का उत्तर | |




.............गीता पंडित..................

Friday, December 2, 2011

द्रवित हुआ जाता है मन .... गीता पंडित

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चुप्पी साधे बैठी है वो 
घाव कई तन पर दिखते,
फटी आँख से देख रही है 
जाने क्या मन पर लिखते ,
झाडू कटका करती दिनभर 
भरी दोपहरी तोड़े पत्थर, 
पीकर रौंदे देह रात-भर 
नयनों से अश्रु हैं झरझर ,
मन में सोच रही है जाने 
ऐसे कैसे रीत रही  |

ये कैसा पुरुषत्व है भद्दी
गाली सा लगता सिन्दूर 
आज खड़ी है चौराहे पर 
मन-मिट्टी का खोया नूर  
आत्म कहाँ मर जाता है यों 
पशुता को भी लांघ रहे 
उसी कोख से पैदा होकर 
उसी कोख को जांच रहे |
सिसक रही है काया उसकी  
मन पर ये क्या बीत रही ||

गीता पंडित 

Saturday, November 19, 2011

चलो गायें फिर से वो ही गीत जिससे, धरा लहलहाए, गगन गीत गाये ... गीता पंडित


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चलो गायें

फिर से वो ही गीत जिससे

धरा लहलहाए, गगन गीत गाये |



अभी नयन की

पुतलियों के घरौंदों में

रेती के तूफान आते दिखे हैं,

कोमल कली के

सपनों को देखो हर

एक चौराहे पर आकर बिके हैं ,



वो पुस्तक के

बदले नन्हे - हाथों में

झाडू - खटके के करतब चले हैं,

अरे ! गालियों

के खिलौनों के बदले ये

कैसे नजारे जो सम्मुख पले हैं,



नहीं ये नहीं

गीत वो गुनगुनायें हम

जिससे सपन फिर बने मीत आये |



नहीं छंद है

आज पल के हृदय में तो

पहले चलो छंद मन में उगायें ,

नयी ताल में

मन करे ता-ता थैय्या

सुर की धरा एसी मन में सजायें ,




सुनो तुम कभी

फिर से पनपेंगें बिरवे

फिर आस के दीप मन में जलायें

विकल है ये

कितनी धरा अब भी देखो

नयी आस्था, नेह, विश्वास लायें ,



अभी हमको

बनना उजाले का साथी

हमारी कथा फिर से दीप गाये ,

धरा लहलहाए गगन गीत गाये | |
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चुटकी बजते ही जैसे विधार्थीकाल में पँहुच जाना या उस समय मी स्मृतियों में डूब जाना जब मैं भी कोटा और भोपाल में हायर
क्लास के विधार्थियों को पढ़ाया करती थी ....कितना सुखद होता है आज जान पायी.... सच कहूँ तो मेरे लियें ये पल(18 नवंबर) जो सनसिटी स्कूल (गुडगावां)(G TV.) विद्यार्थियों के साथ व्यतीत हुए ... सुखद स्मृतियों के अंग बन गये..सुशीला जी!(जो वहाँ हिन्दी की अध्यापिका के साथ कवितायें भी लिखती हैं ) आपके, विधार्थियों के और प्रधानाचार्य सहित और सभी के स्नेह और आत्मीय व्यवहार के लियें हृदय से आभारी हूँ... :))))



इस आयोजन से पहली रात्रि में अचानक कुछ भाव उमड़े और ये नवगीत बन गया जो समर्पित है विशेष रूप से इस स्कूल के विधार्थियों को ...




गीता पंडित

Friday, November 11, 2011

यादों की गठरी में देखो कौन बंधा आया ,,,, गीता पंडित

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यादों की
गठरी में देखो
कौन बंधा आया,
उत्सव के
गलियारे में फिर
मनवा भरमाया |


चूड़ी पायल, टिकली लेकर
धनिया हर्षायी,
नया घाघरा चोली लेकर
मुनिया घर आयी,
देख रही दर्पण में मुखडा
नयना भीग गये,
पी परदेसी कैसे पायल
बिछुआ रीत गये,


अंखियों के
कोटर में फिर से
साजन संग लाया
कौन बंधा आया |


कल ही की थी
बात बना
विस्फोटक पल दहला,
बाजारों में
फिर से रौनक
जन मानस बहला,
पर जेबों पर
भारी पड़ती
बाजारों की बातें.
मन की इच्छाओं
को कैसे
रहीं दबातीं घातें,


फीकी -फीकी
मुस्कानों पर
भारी पड़ आया
कौन बंधा आया ||



गीता पंडित
11/11/11

Saturday, November 5, 2011

बोन्ज़ाई.........गीता पंडित




क्या ना जाने आज पथ में
खो रहा है |


क्यूँ नहीं पल की कथा का

आज तक हिस्सा बने ,

नेह के बीने थे कण-कण

क्यूँ नहीं किस्सा बने ,


मन का बरगद बोन्ज़ाई
हो रहा है,
क्या ना जाने आज पथ में
खो रहा है ||


गीता पंडित


(मेरे नवगीत के अंश)

Friday, October 28, 2011

एक पीड़ा थी तुम्हारी ... गीता पंडित ,


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एक पीड़ा
थी तुम्हारी ,
और
संग तन्हाईयाँ थी,
उम्र की
नैया में अब तो
नीर
भर-भर आ रहा है
मैं ना
भूली हूँ तुम्हें ,
और ना भूलुंगी कभी पर
याद का
पाखी ये देखो ,
आज झर-झर आ रहा है ||



गीता पंडित


( भाई दूज पर विशेष तुम्हारे लियें )

Tuesday, October 25, 2011

ड्योढी - ड्योढी दीप जलें.... गीता पंडित

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ड्योढी - ड्योढी
दीप जलें
घर-घर हो उजयारी,
मेरे दीपक
ज्योति जलाओ
अंतर्मन में न्यारी |

आज महल के
संग-संग देखो
कुटिया में भी दीप जलें,
मन की लहरी
आये झूमती
सबके मन में गीत चलें,

आज ना भीगें
नयन किसी के
नेह सुधा सब पर वारी |

(अंश मेरे नवगीत के )


गीता पंडित

Sunday, October 23, 2011

नवगीत की पाठशाला: २७. उत्सव के ये मौसम

नवगीत की पाठशाला: २७. उत्सव के ये मौसम: उत्सव के ये मौसम क्या क्या रंग दिखाते आये, तन-मन यादों के मेले में फिर भरमाते आए लाल ओढनी ओढ़े मनवा फिर से हुआ मलंग, अंतर्मन की ड्योढ़ी...

Friday, October 21, 2011

किसी के लियें नहीं वांछनीय ... गीता पंडित

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देख सकती हूँ भूखा स्वयम को

क्या देख पाउंगी भूख से दम तोड़ते हुए तुम्हें

भूखे भेडिये बैठे हैं निशाने साधे

और मैं फटे चीथड़ों में तन को ढांपती

कभी देखती हूँ तुम्हें,

कभी अपने आप को,

कभी कौने में ओंधे मुंह बेहोश पड़े नर पिशाच को

और कभी मंदिर में सजे उस भगवान को

पूंछती हुई कि कहो मेरा दोष, मेरा पाप

क्यूँ है मेरा ऐसा वर्त्तमान

क्यूँ था मेरा बेबस बीता हुआ कल

और ऐसा ही होगा मेरा तुम्हारा आने वाला कल

निरपराध होते हुए भी

मेरा जन्म केवल अपराध भरा

उस पर तुम्हारा जन्म

उससे भी बड़ा अपराध

हाय !!!!!

कैसी हतभागिनी मैं

और तुम

किसी के लियें नहीं वांछनीय

क्यूँ ??




.... गीता पंडित

Saturday, October 15, 2011

एक तुम्हारे लियें...... गीता पंडित ..




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वो रही यूँ ही मचलती
कौन मेरे संग गाती |
शब्द वो मुझसे चुराती,
भाव सारे बीन लाती
चाँद के ठंडे तवे पर
सेक रोटी दीन पाती,
चांदनी से छीनकर वो
चांदनी को गुनगुनाती
रैन के सारे तमस को
पी के सुबह मुस्कराती
कौन मेरे संग गाती ||
....







सुर सजें
कुछ इस तरह
बस
तू ही तू एक साथ हो,

प्रेम की
हर एक गली में
मन
से मन की बात हो,

छाँव हो
और धूप हो,
पथ
साथ हों ना साथ हों,

कामना
अब तो यही ,
हाथों
में तेरा हाथ हो ||
....







तुम्हें सुनना,
तुम्हें गुनना,
तुम्हारी बात बस करना

ना जाने क्यूँ
यही बस काम
मन को आज भी भाता
.....








पवन तुम्हारी
बातें बोले
दिनकर अंखियाँ
तुमसे खोले
तुमसे ही तो
मेरे मन की
मैना
मेरे अंतर डोले
आज उडूं मैं
चिडया बनकर
तुम भी
मेरे साथ में आओ
हौले-हौले
मन सितार पर
प्रेम भरी
एक सरगम गाओ ||
....



गीता पंडित

Friday, October 7, 2011

मेरी राह देखती होगी... गीता पंडित


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कहीं सुहानी सुबह एक तो ,मेरी राह देखती होगी
इसीलियें तो पल के पन्नों, पर लिख लायी प्रीत नयी,
तुम भी गाओ मेरे संग में जलतरंग मन के बज उठें
धरती क्या फिर अम्बर पर भी दिख पायेगी प्रीत नयी||


गीता पंडित

Thursday, October 6, 2011

स्त्री ...गीता पंडित



स्त्री ____


बचपन से ही जान गयी थी
प्रेम था केवल सपना ,
मेरे मन का हिस्सा ही तो
था केवल मेरा अपना ,
लेकिन वो भी छूट रहा था
व्यथित हुई मैं उस पल तो,
फिर भी शेष कहीं पर रखा
मैंने अंतर के जल को ||


गीता पंडित

वरना ये एक धोखा है ...गीता पंडित

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कभी जलाने
से पहले
रावण को
हमने सोचा है,
कितने रावण
मन के अंदर
जिनको हर पल भोगा है,
दूर करें
हर एक बुराई,
पहले
अपने मन - तन की ,
तभी तो
सच्चा
जलना होगा
वरना ये तो धोखा है


गीता पंडित

Wednesday, October 5, 2011

विजय-दशमी की बधाईयाँ ... गीता पंडित


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कभी - कभी
जीवन के
पथ में
एसे मोड भी आते हैं,
सब कुछ
अच्छा
होता है पर
पथ,
पथ में खो जाते हैं
आशा की
नगरी में फिर भी
मन के पाखी भटकें ना
इसीलियें
हम
विजय दिवस पर
आस बीज बो जाते है"


विजय-दशमी के पावन पर्व पर सभी के मन प्रफुल्लित हों...
.दशहरे की हार्दिक बधाई स्वीकार करें.............. गीता पंडित
.... गीता पंडित

Monday, September 19, 2011

स्त्री.... गीता पंडित

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बेबस क्यूँ बेजान हूँ मैं,
अब कह दो इंसान हूँ मैं |


बाहर - बाहर पिघली हूँ
अंदर से चट्टान हूँ मैं |


अंदर भीड़ बड़ी भारी ,
बाहर से सुनसान हूँ मैं |


बाहर है संग्राम बड़ा
अंदर एक पहचान हूँ मैं |


मेरे जुलाहे! कात मुझे
रूई धागा शमशान हूँ मैं |


.गीता पंडित ,



Thursday, September 8, 2011

एक गज़ल ........ गीता पंडित



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सुबह से साँझ तक खपकर हम इतना कमाते हैं
मिले दो जून की रोटी, इक सपना सजाते हैं |


उमर की शाख पे देखो , ये बरगद पुराना है
कहें किससे बिना छत के हम सोने न पाते हैं |


घने जंगल उगे कीकर, लहु रिसता है श्वासों से
जहाँ भी चाह मिलती घर वो अपना बनाते हैं |



कहाँ है रुक्मणी बोलो घर जिसने सजाया है
समर्पण की विधा भूले , राधा कृष्ण गाते हैं |


मुखौटे ओढ़कर जीना 'गीता' कब हमें आया
जिसे भी हम बुलाते हैं,  दिल से ही बुलाते हैं |


 .... गीता पंडित..

Friday, September 2, 2011

धुंधाती अंखियों में देखो ...गीता पंडित ( एक नवगीत )


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चट्टानी
प्राचीरों पर भी
नव-चित्रों की
कथा सुनाये |

किरण-किरण
फैले उजियारा
मन ये भोर सुनहरी पाये |



समय थपेड़े
मारे चलता
कोई उसको कुछ समझाये,
श्रम की रोटी
खाने वाले
कैसे भूखे मरते आये,


लिखने को लिख
गये ग्रंथ हैं
आँसू अब भी आँखों में हैं,
कितने भी
जुलूस निकालो,
दर्द कमल की पाँखों में है,



मैं भी बोलूँ
तुम भी बोलो
पीड़ा मन की छँटकर आये |



यौवन अल्हड
भरी जवानी
अंग-अंग एक गीत बना है,
लेकिन ये क्या
फटे - चीथड़े
हर चौराहा रक्त सना है,


नेह जले है
रातों - रातों
जीवन की रचना भी खोई,
धुंधाती
अंखियों में देखो,
पनप रहा है सपना कोई,


चुपके से ये
रात रुपहली
वेष बदलकर दिनकर लाये |

चट्टानी
प्राचीरों पर भी
नव-चित्रों की कथा सुनाये |


गीता पंडित

Saturday, August 27, 2011

नये सपन की बात ... गीता पंडित


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कुहराई है
टहनी - टहनी,
पात - पात
कुहरा आया
फिर भी
नव - पत्तों की बातें
देखो डाली करती है,
शब्द - शब्द में
बहकी
फिरती
भाव - भाव में
टंक आती,
नये
सपन को
देखो अब भी
आँख
मेरी तकती है |


.गीता पंडित.

लोकतंत्र की विजय गर्व है मुझे मैं
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की नागरिक हूँ
और वो देश मेरा अपना है ........... जय हिंद ...

Friday, August 5, 2011

यूँ ही कुछ मन से ......गीता पंडित


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इन अंधेरों में भला क्या सोचना है अब मुझे
रोशनी हूँ रोशनी बन गुनगुनाती आऊँगी,
दीप है मेरा पता ये हाथ में मेरे लिखा है,
दीप की गाथा युगों तक ज्योति बनकर गाऊँगी|

....






मैं वो ज्योति आंधियों में
भी अकेली जो जली हूँ,
नेह के आँगन की बेटी,
पीर में लेकिन पली हूँ |
....




राम रहीम में रहे अलग क्या
सबमें वही समाया,
नेह के बंधन रहें सजीले
मन ने ये दोहराया |
....





दो शेर ( गज़ल से )..


रोक लें उम्र को के जीना है अभी,
शेष रहा जो गरल पीना है अभी |

यूँ गुज़रती जा रही इस जिंदगी के ,
हर फटे आँचल को सीना है अभी |
....





1)

ज़िंदगी में मोड तो आये कई लेकिन ना जाने
कौन सा वो मोड था कि मैं कहाँ पर रुक गया,
रात की सुनसान नगरी, चाँदनी, बेकल पवन
कह रहीं क्या जाने यूँ सर कहाँ पर झुक गया |
.....




2)

किरण की पालकी लेकर नया दिन फिर से आया है
लो जागें आज फिर से हम दिनकर मुस्कराया है,
समय की डोर से बंध कर,करें पूरा हरेक सपना,
जिसे देखा था कल हमने समय फिर आज गाया है|
.....


गीता पंडित







Friday, July 1, 2011

जाने क्यूँ.... एक कविता ...गीता पंडित .

...
...


तुम से ही चहकी मन चिड़िया
कलरव था मन की डाली,
जाने क्यूँ - कर काट ले गया,
बरगद को पल का माली,

कितना खाली - खाली मन है,
चुप्पी है चहूँ और सजी,
मीत ! तुम्हीं से मन की पायल,
मेरी थी दिन - रैन बजी.

अभी प्रतीक्षित - श्वासें - मेरी,
हैं ड्योढ़ी पर नयन लगे.
आकर देखो मन के द्वारे,
प्रेम के पाखी सभी जगे | |

..गीता पंडित

Thursday, June 16, 2011

प्रेम ....


..
...


ज़िंदगी
क्या है कभी
किसको
समझ आया यहाँ,


एक तुम्ही
थे बस तुम्ही थे
पर ना जाने थे कहाँ,


बिन तुम्हारे
दीप सा तन
बुझ के माटी हो गया,


फिर भी
दीपक सा चहकता
मन रहा केवल वहाँ ||



गीता पंडित

Thursday, June 9, 2011

तुम थे रंग , कैनवस कूची

वो सब सजे हुए ऐसे ही,

जब भी रंग भरुंगी तुम ही

रंग बनकर के आ जाओगे ,

चित्र-चित्र में आकर तुम ही

रंग बनकर के मुस्काओगे |



..नमन हुसैन साहब को ..

,, गीता पंडित..

Thursday, May 26, 2011

कौन कहाँ अपना होगा ...


"जीवन ही जब सपना है तो, सपना तो सपना होगा ,

कौन घाट पर उतरेगा अब, कौन कहाँ अपना होगा ,

सबकी ढपली अपनी - अपनी राग सभी के हैं अपने ,

फिर भी इस जीवन की ख़ातिर साँसों को जपना होगा||"



.गीता पंडित.

Friday, May 20, 2011

शब्द - दीप

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शब्द क्या ये दीप हैं जो रैन में हमने जलाये.
देख पूनम के निखर के बैन सारे फिर से आये
खिल गयी है चांदनी, तारे फिर से मुस्कराये,
भोर की देकर दुहाई साथ मेरे फिर से गाये | |


..गीता पंडित..

Sunday, May 8, 2011

तुमसे से ही तो जाना मैंने
है विस्तार कहाँ तक मेरा
एक तुम्हारे कारण मन में
नेह ने डाला अपना डेरा ||
तुमसे अब पहचान है मेरी,
" माँ: कहकर तुम मुझे बुलाते
अंग - अंग में एक तुम्ही से
फूट नेह के चश्मे आते | |




संसार की सबसे भाग्यशाली
" तुम्हारी माँ "
गीता पंडित

Friday, May 6, 2011

" माँ " ....

...
....


नाम
तुम्हारा आते ही माँ !
मन में बदली छा जाती है |


नेह पत्र पर
लिखे जो तुमने
भाव अभी हैं आज अनूठे
बेल लगी है
संस्कार की
सजा रही जो मन पर बूटे,


बूटे -
बूटे नेह तुम्हारा
मन की छजली भा जाती है |


देह कहीं भी
रहे मगर माँ
मन तो पास तुम्हारे रहता
शैशव में जो
रूई धुनी थी
कात उसे संग-संग में बहता


शब्दों
में आकर हौले से
मन की सजली गा जाती है |



गीता पंडित

Wednesday, May 4, 2011

तुम्हारे बिन .....गीता पंडित

....
.....

बरसकर भी ना बरसे जो
न जाने कैसी बदली है,

नयन की कोर पर अटकी
सपन की भोर गीली है,

तुम्हारी याद का सावन 

घिरा है आज फिर से क्यूँ

बना है पाखी मन फिर से,
धरा की भोर सीली हैं |

ना जाने क्यूँ नहीं आये
कहा था आऊँगा एक दिन

तुम्हारे बिन समझ लो तुम
नहीं संध्या सहेली है ,

चले आओ नहीं लगता कि
ये अब मन तुम्हारे बिन

तुम्हारे रंग से ही मीत !
मन चूनर ये पीली है | |



..गीता पंडित..

Sunday, May 1, 2011

यही सब ...



...
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हाँ !!!! तोड़ना है

छंद की रूढ़ियों को

रचना है इतिसास नया

ताकि मुक्त होकर

गा सकूं तुम्हें

निर्द्वंद, निर्पेक्षित, निरंतर

व्यूह रचा गया था

जान गया था अभिमन्यु

पर नहीं जानता था

उससे बाहर आना |



मुझे जाननी होगी

बाहर आने की कला

ताकि गढे जा सकें

नये - किले

मरम्मत की जा सके

जीर्ण - शीर्ण इमारतों की |



शब्द को देकर पहचान नयी

मैं लिख सकूं वो कविता

जो मेरे मन ने चाही

मेरी नदी से प्रस्फुटित हो

और प्रेम की भागीरथी बन

उतरे तुम्हारे मन - आकाश में ||



.. गीता पंडित ..

Thursday, April 28, 2011

सच कहती हूँ ...


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बंजर ज़मीन में

पनपेंगे

बिरवे फिर से




बस

निकालने होंगे

रोडे - पत्थर

तोड़ - तोडकर




उग आये

कांटे - कीकर

काट - छाँटकर




धरती की

सुकोमल देह को

बनाना होगा

समतल




देकर नीर

अपने मन की

सरिता का




देखना

फिर से

एक दिन

लदी होंगी डालियाँ

फूलों से




नहीं

देखना

हाथ की लकीरों को




मृग-

मरीचिका

बन भटकाएँगी




हाँ ....

सच कहती हूँ ||



.. गीता पंडित ..

Saturday, April 23, 2011

हर सुबहा के समाचार में ...गीता पंडित

नवगीत की पाठशाला २२ अप्रैल २०११ को
" समाचार " विषय पर ये नवगीत मेरा ...


.....
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हर सुबहा के
समाचार में
ख़बर यही बस एक रही |




कितनी हत्याएं और चोरी
कहाँ डकैती आज पडी,
बलात्कार से कितनी सड़कें
फिर से देखों आज सडीं,
मानवता रो रही अकेली
नयनों में लग गयी झड़ी,
भरे चौराहे खडी द्रोपदी
अंतर विपदा रहे खडी ,




कोर नयन की
भीगी भीगी
सुबह से ही जगी रही |




खार हुए वो प्रेम प्रेम के
खेतों की फसलें सारी,
क्यूँ अग्नि में झोंकी जाती
वो ममता मूरत प्यारी,
भाई चारा दिखे कहीं ना
एक पंक्ति भी मिले नहीं
कैसी है ये पीड़ा मन की
बन जाती नदिया खारी,




मन के बरगद
धूप पसरती
छैय्याँ मन की ठगी रही |




समाचार को हुआ है क्या
कौन किसे समझायेगा,
फिर वो ही पनघट की बातें
औ चौपालें लायेगा,
बुझे हुए हर मन के अदंर
जला आस्था की ज्योति
मुस्कानों के फूल खिलाता
हर एक द्वारे जाएगा,




मन मंदिर है
प्रेम का मीते !
बात यही मन सगी रही ||





गीता पंडित


दिल्ली ( एन सी आर )

Sunday, April 17, 2011

सुर सजाकर फिर से लायें ....

सोचते क्या सुर सजाकर फिर से लायें
हम बुजुर्गों को हंसाकर फिर से लायें |


इस धुंधलके में भला क्या दिख रहा है
चल चले सूरज उठाकर फिर से लायें |


मातमी धुन है सभी कुछ बिक रहा है
चल चलें खुशियाँ सजाकर फिर से लायें |


हैं अधर चुपचाप आतुर बोलने को
चल चलें शब्दों की गागर फिर से लायें |


नयन हैं रीते बड़े बेकल से " गीता "
चल चले सपनों की चादर फिर से लायें ||



गीता पंडित

Wednesday, March 23, 2011

नत है मस्तक...






देकर के बलिदान तुम्ही ने, माँ का शीश उठाया है,
देश प्रेम का पाठ तुम्ही ने, हमको आज पढ़ाया है,
नमन तुम्हें ए वीर जवानों तुम सपूत भारत माँ के,
तुम्हें याद करके देखो अखियों में बादल छाया है||


... गीता पंडित...