सच कहती हूँ ...
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.....
बंजर ज़मीन में
पनपेंगे
बिरवे फिर से
बस
निकालने होंगे
रोडे - पत्थर
तोड़ - तोडकर
उग आये
कांटे - कीकर
काट - छाँटकर
धरती की
सुकोमल देह को
बनाना होगा
समतल
देकर नीर
अपने मन की
सरिता का
देखना
फिर से
एक दिन
लदी होंगी डालियाँ
फूलों से
नहीं
देखना
हाथ की लकीरों को
मृग-
मरीचिका
बन भटकाएँगी
हाँ ....
सच कहती हूँ ||
.. गीता पंडित ..
2 comments:
sundar abhivyakti
आभार ...
लीना जी ..
सस्नेह
गीता
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