Sunday, May 1, 2011

यही सब ...



...
.....


हाँ !!!! तोड़ना है

छंद की रूढ़ियों को

रचना है इतिसास नया

ताकि मुक्त होकर

गा सकूं तुम्हें

निर्द्वंद, निर्पेक्षित, निरंतर

व्यूह रचा गया था

जान गया था अभिमन्यु

पर नहीं जानता था

उससे बाहर आना |



मुझे जाननी होगी

बाहर आने की कला

ताकि गढे जा सकें

नये - किले

मरम्मत की जा सके

जीर्ण - शीर्ण इमारतों की |



शब्द को देकर पहचान नयी

मैं लिख सकूं वो कविता

जो मेरे मन ने चाही

मेरी नदी से प्रस्फुटित हो

और प्रेम की भागीरथी बन

उतरे तुम्हारे मन - आकाश में ||



.. गीता पंडित ..

8 comments:

Anonymous said...

BAHUT SUNDAR SABDO SE BATE KAHI HA AAP NE ....NICE WORDS USED GITA JI PANDIT

Dinesh Mishra said...

सुन्दर पंक्तियाँ ...........!!

पूर्णिमा वर्मन said...

आप बार बार अपनी इच्छानुसार व्यूह बनाएँ तोड़ें और अंदर बाहर जब चाहें आ जा सकें, यहा मंगलकामना है। इस उद्देश्यपूर्ण और प्रेरक रचना के लिये बधाई।

शिवनाथ कुमार said...

आपकी रचनायें पढी, काफी अच्छी लगी |
सुन्दर और सार्थक ...... !!

गीता पंडित said...

आभार कमल जी...
शिव नाथ जी...

पसंद करने के लियें ...


सस्नेह
गीता पंडित

गीता पंडित said...

आभार दिनेश मिश्रा जी...

आपको पसंद आयी ..आप स्वयं बहुत अच्छा लिखते हैं ...


शुभ-कामनाएं
गीता पंडित

गीता पंडित said...

आपकी मंगलकामनाओं के लियें
आभार पूर्णिमा दी ...


आपको भी
शुभ-कामनाएं

गीता पंडित

लीना मल्होत्रा said...

gita achhi lagi aapki kavitaaye. bahut bhavpoorn hai. shabd saushthav ne bhavnaao ko aur ukera hai. badhai aur meri shubhkaamnaayen aapke liye.leena malhotra