Thursday, August 27, 2015

फेसबुकिया मॉम .... कहानी ... गीता पंडित



 
 
फेसबुकिया मॉम ____

कुछ टूट रहा है भीतर | वह जानती है लेकिन कुछ कर नहीं पा रही | टूटन कहाँ नहीं है ? हर रोज़ हर घड़ी कुछ ना कुछ टूटता है | आशाएँ टूटती हैं | इच्छाएँ टूटती हैं | रास्ते टूटते हैं | मंजिलें टूटती हैं | रिश्ते-नाते टूटते हैं | प्रेम टूटता है यानि ज़िंदगी टूटती है, ज़िंदगी रूठती है | ज़िंदगी का रूठना टूटना आप जानते हैं ना क्या होता है |

ज़िंदगी की टूटन सपनों को तोडती है | सपनों की टूटन ज़िंदगी को सजायाफ्ता सड़कों पर धकेल बंजारन बना देती है जहाँ दिन में रात होती है और रात को सूरज पहरा देता है | रात की रानी मुरझा जाती है और कुम्हला जाती है सुबह की वो कोमल कली जो नीची नज़रें किये खामोश पड़ी रहती है जिसको स्कूल जाते बच्चों को गुडमोर्निंग कहना होता है | ऑफिस जाते हुओं को बाय-बाय बोलना होता है | भोर पंछियों का कलरव भूल जाती है | डालियाँ उदास मुँह लटकाए बैठी रहती हैं | पत्ते चुपचाप सुन्न पड़े रहते हैं |

हवा बावरी होकर कहीं गुफा में जाकर घुटनों के बल बैठ जाती है जैसे प्रार्थना कर रही होती है यह कहते हुए कि मैं तो पुरवाई हूँ, जीवन दायिनी संजीवनी | बहना चाहती हूँ | आओ मेरे पंखों पर सवार हो जाओ | उड़ो मेरे साथ निर्द्वंद होकर लेकिन उसकी प्रार्थनाएं कोई नहीं सुन रहा | हर ओर नीरवता, हर तरफ केवल सन्नाटा ही सन्नाटा |

मैं अक्सर सोचा करती हूँ कि आख़िर कौन है जो इस शोरगुल में भी नीरवता भर जाता है | क्यों करता है वह ऐसा ?

इतनी भीड़ के होते हुए भी क्यूँ जीवन ऐसे निरापद और एकाकी हो जाते हैं |

(शेष नीचे दिए लिंक पर पढ़ें ... आभार )


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प्रेषिता
गीता पंडित