Wednesday, August 29, 2012

क्यूंकि मैं एक स्त्री हूँ ....... गीता पंडित

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सूर्य की तपती हुई

आँखों में आँखें डालकर

मैं अडिग अब भी खड़ी हूँ 


वो अलग है भाप बनकर के जली हूँ

समय की वेणी बनाकर

गूंथ ली है भाल में

हाँ सुरभी से बेशक लड़ी हूँ


हर असत की पीठ पर कोड़े लगाकर पल पलक में

किरकिरी बनकर पड़ी हूँ

हाँ अभी मैं अन-लिखी हूँ , अन-पढ़ी हूँ


फिर भी देती हूँ अमावस को चमक में 

और पूनम की सदा बन पूनमी बनकर झड़ी हूँ


क्यूंकि मैं एक स्त्री हूँ ...

इसलियें मैं जी रही हूँ 



गीता पंडित

३० अगस्त १२ 

Sunday, August 26, 2012

एक मुक्तक .... गीता पंडित

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नई राहें बनाई हैं कभी जब पथ रुके पथ में 

न जाने क्यूँ अभी तक सामने मंजिल नहीं पाई 

घिरे घनघोर हैं बादल अँधेरे में घिरे पनघट

फिर भी आस की चूनर कभी मन ने ना ढलकाई



गीता पंडित 

26 गस्त 12





Tuesday, August 14, 2012

रक्त पिपासक समय हो रहा ... गीता पंडित ( पन्द्रह अगस्त की पूर्व संध्या पर ) सभी भारतवासियों को शुभ कामनाएँ ( देश विदेश )


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रक्त पिपासक समय हो रहा 
अब क्यूँ मूक बने डोलो

प्राचीरों में दबी घुटी सी
सोई किसकी सिसकी है
तहखानों में बंद राज सी
देखो किसकी हिचकी है

बच्चा –बच्चा बने सिपाही
गद्दारों को हो फांसी
जो भी देश के दुष्मन हैं
वो सारे हों वनवासी

जात - पात भाषा के झगड़े 
अब तो मन-तन पर तोलो

पैंसठ वर्ष हो गये अब क्यूँ
नहीं दिखा भाईचारा
कौन नहीं है बोलो माँ के
लियें चमकता इक तारा

बंदी हुई भावना क्यूँकर
स्वार्थ हुआ सब पर भारी
राजतंत्र के सम्मुख घुटने
टेक रही अब लाचारी

बनकर के ललकार चलो तुम 
मुंह अपना अब तो खोलो
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गीता पंडित 
15 अगस्त 12