Saturday, June 13, 2020

बेबस द्रोणाचार्य- गीता पंडित




बेबस द्रोणाचार्य-


ओ समय! मुखौटे उतारते हुए
तुम मुस्कुराते हो
हम रोते हैं
तुम अट्टहास करते हो
हम चीखते हैं

संवेदनाओं के बाज़ार में
बिकाऊ हो गया है आदमी
हैरान आँखें
करती हैं मूक रुदन

तुम होंठों पर चुप्पी
और आँखों पर पट्टी बाँधे
गांधारी बन देखते हो
जबकि होना था तुम्हें गांडीवधारी अर्जुन
जिसे दिखाई देनी थी
बींधने के लिये
केवल आँख की पुतली

दर्द के ग्रंथ लिखती हुई सड़कें
पीड़ा में डूबे हुए गाँव
प्रश्न बनकर खड़े हैं तुम्हारे सामने
मौन हो तुम
लेकिन नहीं रहेगा मौन इतिहास
हिसाब देना होगा
अमानवीय होते हुए हरेक पल का।

तुम्हारा बेबस द्रोणाचार्य बनना
प्रलयंकारी है
यह समझ लेना

#गीता पंडित
14 जून 2920
#कोरोना

Wednesday, January 29, 2020

पुकारना अपने बसंत को ...गीता पंडित


.....
.......

प्रतीक्षा साधना है
साधना जीवन के अधरों की मुस्कान

मुस्कान को सदियों में ढालने के लिए
जीवन का मृत्यु के साथ निरंतर संघर्ष
उम्र के सर की चाँदनी है
जो मौन के शीतल जल में स्नानकर
धवल हो जाता है

मौन मन जब मुखर हो उठता है
ढह जाते हैं पीड़ा के साम्राज्य
पतझर झाँकने लगता है बगलें
अंगडाई लेकर उठती है
उदास ख़ामोश शाम
वीतरागी देह
पुकारती है अपने बसंत को
यही समय होता है पंछियों के लौट आने का

गीता पंडित
29/1/20

Wednesday, May 29, 2019

एक ग़ज़ल -गीता पंडित

.....
.......


नारों में खो गयी अदा है
जिस पर सारा देश फिदा है

कौन किसे कब समझ सका है
अपनी ही बस एक सदा है 

रातों को दिन कहने वाले
कैसी तेरी अजब अदा है

ढूंढें से भी मिले नहीं जो
रखता कैसी बता गदा है

'गीता' कहती सच्ची बातें
गीता में मन रहा सदा है || 


  

Monday, May 6, 2019

लोकतंत्र दुख पाता है - गीता पंडित


लोकतंत्र दुख पाता है -

फिर संसद ने टेर लगाई
समय खड़ा मुसकाता है

लगा सभा हर मंच दहाड़ा
सेहरा बाँधे हँसे चुनाव
झूठ पहनकर चोगा व्हाइट
सच बेचारा रहा फँसाव

बग़लें झाँके वोट यहाँ अब
लोकतंत्र दुख पाता है

हर चौराहा इशतहार बन
रोक रहा जन मन के पाँव
कुर्सी दल बल बनकर देखो
लगा रही है शकुनी दॉव

सुबहा खड़ी अपलक निहारे
दिनकर रोता आता है।
.........

गीता पंडित

7 मई 2019

Friday, September 14, 2018

भूख से वो हार बैठा --गीता पंडित की एक ग़ज़ल


......
.........

भूख  से  वो   हार  बैठा
देह   अपनी   मार  बैठा

है   नहीं   क़ानून   कोई
ये  समय  खो  धार बैठा


इल्म  ठोकर   खा रहा है
आप  में  वो   भार बैठा

आँधियों   ने  क़हर  ढाए
आम  अश्रू   झार   बैठा

नम समय की आँख"गीता”
सात   सुर  वो  हार बैठा ।


गीता पंडित
१४ सितम्बर २०१८

Friday, August 10, 2018

एक कविता - कभी-कभी बरगद होना भी - गीता पंडित

कभी-कभी बरगद होना भी -
________________
 

बरगद होना 
अपने आप में सार्थक होना है  
डालियों पर झूलते घोसले 
चहचहाते परिंदे  
उसके वर्चस्व का स्थाई पता हैं

घनी छायादार डालियाँ 
झूम-झूमकर अभिनंदन करती हैं
उन थके हारे 
लहुलुहान गिरते-पड़ते पांवों का 
जिन्हें सूरज ने लताड़ा 
जिन्हें समय ने दुत्कारा 
जिन्हें कुबड़ा बनाने में 
शकुनी-समय ने फेंके थे पासे 

यहाँ गीत है प्रेम का 
कविता है प्यार की 
पात-पात पर लिखे होते हैं 
अलिखित प्रेम के आलेख 

कभी-कभी बरगद हो जाना भी 
हो जाना है खतरनाक 
डालियों पर पल जाते हैं विषैले भुजंग 
जिनकी सरसराहट 
आमद है किसी बड़े खतरे की

वे हो जाते हैं नीलकंठी ( विष वमन करने वाले ) 
जिनका विष 
सफा चट कर जाता है 
नव अंकुरित पल्लवों को
चहचहाते पंछियों को 

नयी हवाओं को 
दहशत में रखना जिनका शगल है 

लेकिन समय पैनी नज़रों से सब देखता है 
वह दर्ज करता रहता है 
इन असभ्य पलों को अपनी डायरी में 
चुपके से करता है शब्दों से कुठाराघात

और बरगद विस्मय से 
देखता है इस अनहोनी को 

बरगद का ठूँठ हो जाना भी 
होता है शर्मनाक और अहितकारी |........

गीता पंडित 
8/11/18  






एक नवगीत - झाँक रहीं खिड़कियाँ कब से -गीता पंडित

 
 
 
झाँक रहीं खिड़कियाँ कब से-
______________________
 
 
झाँक रहीं 
खिड़कियाँ कब से 
कोई दिक्खा नहीं दूर तक 
 
कितनी आबादी दुनिया में 
फिर भी पथ पर वीराने हैं 
बूढ़ी अँखियाँ 
बाँझ हो गयीं 
हम सपनों के दीवाने हैं 
भूख तड़प
पीड़ा बेचैनी 
किन अर्थों में जीवन है ये 
श्वासों का ये चक्र बोझ है 
धड़कन के फिर
क्या माने हैं 
 
 
 
लिक्खी गयीं 
किताबें कितनी 
जीवन लिक्खा नहीं दूर तक 
झाँक रहीं खिड़कियाँ कब से 
कोई दिक्खा नहीं दूर तक 
 
 
 
सागर की ये अमिट कहानी 
प्यासा जीवन खारा पानी 
आखर-आखर 
गुँथा हुआ है 
पीर ह्रदय की रहा बखानी 
अंधी गलियाँ
रीति नदियाँ 
देख कटीली बाढ़ यहां पर 
घायल हिरणी रहे सुबकती 
पशुता की हर
एक निशानी 
 
 
 
खोटा सिक्का
चले यहाँ पर
कोरा सिक्का नहीं दूर तक
झाँक रहीं खिड़कियाँ कब से 
कोई दिक्खा नहीं दूर तक ||
 
#गीतापंडित
11 अगस्त 2018
 
(दह्लीज़ के भीतर-बाहर) संग्रह से

Saturday, May 26, 2018

एक नवगीत-टहनी मुस्कराई -गीता पंडित

.......
.........

टहनी मुस्कराई
______________


धूप पहनी है कि
टहनी मुस्कराई
और चेहरों पर
सुमन के गुनगुनाई


हैं लगे
पंछी चहकने
मन लगे
अब तो बहकने

देख आँगन में
चिरैय्या चहचहाई
धूप पहनी है कि टहनी मुस्कराई


आँख ने
सपने सजाये
पाँव भी
गति आप पाये

फिर सुबह की
पाँखुरी पर ओस आई
धूप पहनी है कि टहनी मुस्कराई ||

गीता पंडित
5/27/2018

Thursday, March 22, 2018

मत करो अवसाद ..गीता पंडित

......

मत करो अवसाद
मत होना दुःखी

भर गया है जो निर्वात रोम -रोम में
उसमें भर जाने दो कविता

ताकि हँस सके पोर-पोर
खिलखिला सके समय
और गा उठे जीवन 


क्योंकि यह गीत ही अंतिम लक्ष्य है श्वासों का
मृत्यु से पहले



गीता पंडित
३/२१/१८

विश्व कविता दिवस की सभी मित्रों को शुभकामनाएं

 

Wednesday, February 14, 2018

प्रेम पथ पर -- गीता पंडित

प्रेम -

कोख धरती के सुनहरे
बीज सारे रोप आई
प्रेम की लोरी के पीछे
चीख़ ना दे अब सुनाई

पेड़ चन्दन की बनी अब
भी खड़ी हूँ मैं वहीं
देह की हर चेतना तो
खो गयी कैसे कहीं

प्रेम पथ पर तुम मिलोगे है अभी मुझको यकीं


गीता पंडित
14 फरवरी 2018

Wednesday, March 8, 2017

अपनी इच्छाओं के लिबास ... एक कविता ...गीता पंडित


कहते हैं
सच कड़वी गोली है
मगर होता है वही मुफीद भी
भयंकर बीमारी से निज़ात दिलाने के लिए |

 सच जानने के बाद भी
सदियों से आक्रांत समाज
फिर भी नहीं बदलता
बदल जाती हैं मौसमों की हरकतें
सत्ताओं का गुरूर
चेहरे मोहरे की रंगत
मगर नहीं बदलता आदमी का जुनून
उसका पुरुषत्व
उसका सोच |

आधी आबादी को देह समझने वाला वह पुरुष
पहने हुए नकाब आज भी
घर से लेकर बाहर तक
बाघ बनने की झूठी प्रक्रिया को दोहराने में लगा है

 वह नहीं जानता
मगर जानती है स्त्री
और पहचानती है उसका मिमियाना

इसलिए बेखौफ़ होकर स्त्री ने पहन लिए हैं अपने मन पर
अपनी इच्छाओं के लिबास
उतारकर वे सभी बेनामी मुखौटे
जिनमें दफ़न कर दी गयी थी
स्त्री की पूरी की पूरी सभ्यता |

 उसका मौन अब अभिशाप नहीं
मुखर सम्वाद है 
अपनी ही प्रजाति की घाटियों का
पहाड़ों का
वो अनकहा शिलालेख है
जिसे पढ़ने के लिए
होना होगा
उसी की तरह इंसान |

गीता पंडित
8 मार्च 2017

Saturday, July 23, 2016

एक गीत .. साँसों में धीरे से कोई ... गीता पंडित


.........
...................
 

साँसों में धीरे से कोई _____

 

 
विगत हुई
लो भोर दुपहरी
दीप साँझ का जल आया
साँसों में
धीरे से कोई
फिर से साथ चला आया |

 
यमन राग
के सुर आलापे
फिर से देखो रात चली
अंतर की
घाटी में देखो
फिर से उसकी बात चली
 

सुगबुग करती
मन सरगम को
लय में कौन ढला लाया

 
साँसों  में
धीरे से कोई

फिर से साथ चला आया
 
 
लगी सभाएं
तारों के संग
दूर गगन में चन्द्र दिखा
चप्पे – चप्पे
चली चंद्रिका
पग-पग पर था प्रेम लिखा
 
बुझती बाती
से लो दीपक
फिर से कौन जला लाया
साँसों  में
धीरे से कोई
फिर से साथ चला आया
 
- गीता पंडित
7/24/2016