कहते हैं
सच कड़वी गोली है मगर होता है वही मुफीद भी
भयंकर बीमारी से निज़ात दिलाने के लिए |
फिर भी नहीं बदलता
बदल जाती हैं मौसमों की हरकतें
सत्ताओं का गुरूर
चेहरे मोहरे की रंगत
मगर नहीं बदलता आदमी का जुनून
उसका पुरुषत्व
उसका सोच |
आधी आबादी को देह समझने वाला वह पुरुष
पहने हुए नकाब आज भी
घर से लेकर बाहर तक बाघ बनने की झूठी प्रक्रिया को दोहराने में लगा है
और पहचानती है उसका मिमियाना
इसलिए बेखौफ़ होकर स्त्री ने पहन लिए हैं अपने मन पर
अपनी इच्छाओं के लिबास उतारकर वे सभी बेनामी मुखौटे
जिनमें दफ़न कर दी गयी थी
स्त्री की पूरी की पूरी सभ्यता |
उसका मौन अब अभिशाप नहीं
मुखर सम्वाद है अपनी ही प्रजाति की घाटियों का
पहाड़ों का
वो अनकहा शिलालेख है
जिसे पढ़ने के लिए
होना होगा
उसी की तरह इंसान |
गीता पंडित
8 मार्च 2017
1 comment:
आपका नववर्ष मंगलमय हो
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