Wednesday, April 23, 2014

शमशान का सन्नाटा ....... गीता पंडित




कहो तो ______
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होने में न होना 
तुम्हारा 
न होने में होना 
विकलांग नहीं बनाता समय को 

किन्तु  
पंगु बना देता है 
प्रेम के उस समंदर को 
जिसमें सुनामी आती है बिना बताये 
और बहा ले जाती है अपने साथ 
महकते 
चहकते 
बाग़-बगीचे 
हरियाली के बिछे गलीचे 
सारे महल-दुमहले

जीवन के काँधे पर 
लद जाती हैं जीवित लाशें 
शमशान का सन्नाटा 
बदबूदार हवाएं 

अवरुद्ध कर देती हैं साँस  लेने के रास्ते 


किसको भायेगा 
कहो तो
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गीता पंडित 
4 / 12 / 13

Monday, April 21, 2014

मुक्तक ........गीता पंडित

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1)

साँझ के द्वार पर फिर उदासी खड़ी 

सोचता है ये मन क्यों उबासी बड़ी 

ये हवा जो चली  विष भरी है यहां

आसुरी है क्यों पल और बासी घड़ी 
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2)

ओम ऐम ह्रीं क्लीम वोटराय नम:

यही जाप करते हुए दिख रहे वो 

बहुत उनमें अनपढ़ अंगूठा लगाते 

किस्मत हमारी मगर लिख रहे वो 
....... 


गीता पंडित
22/4/14

Wednesday, April 16, 2014

हाय रे सैय्याद ..... गीता पंडित


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हाय रे सैय्याद !____

रौंदते हुए समय की रीढ़ को
दौड़ते हुए सड़कों पर
अनमने नहीं थे पाँव
जानते थे कहाँ रुकना है
जानते थे कहाँ पंहुचना है

मंजिल मालूम थी
रास्ते भी तय थे
पंख थे उड़ने के लिये

हाय रे सैय्याद !
कैसे हो गयी तुम्हारी कैची इतनी पैनी
पलभर में काट डाले ज़िंदगी के केश

अब बेवा बनी भटक रही है
अपनी ही बनाई राहों पर चलने के लिये

सच कहना
पर कतरते हुए
क्या कम्पन नहीं हुआ तुम्हारे ज़िस्म में ??


.......… गीता पंडित
16 / 4 / 14

Friday, April 11, 2014

मैं स्त्री थी ......गीता पंडित

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मैं स्त्री थी 
बाँट दी गई 
माँ बहन बेटी पत्नी में. 

देवी कहकर 
अपमानित किया 
देवदासी कहकर 
अपने भोग की वस्तु बनाया. 

बलात्कार कर 
हत्या की मेरे अस्तित्व की 
वैश्या तुम्हारा दिया नाम है 
परित्यक्ता नाम भी 

तुम्हारी ही देन

आह !!!!!
नहीं दे पाये तो बस एक नाम
' सहचरी ' 
क्या मैंने बहुत ज़्यादा चाहा था ? ?
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गीता पंडित

11/4/14

Wednesday, April 2, 2014

हाँ याद रहे ...... गीता पंडित

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मेरा प्रेम समर्पित था 
तुम्हारे लियें
तुम्हारी इच्छाओं के लियें
तुम्हारे सुख-सौंदर्य-वैभव के लियें

कहाँ रास आया तुम्हें
देवी बनाकर मुझे 
बना दिया बंधक

मैंने कभी नहीं ललकारा 
तुम्हारे पुरुषत्व को

तुमने ललकारा मेरे स्त्रीत्व को
एक बार नहीं, दो बार नहीं 
जाने कितनी बार 
बरसों सदियों 

भूल गये मेरा मन, 
मेरी चेतनता, मेरा प्रेम, मेरा समर्पण
यहाँ तक कि मेरा अस्तित्व

बन गयी अहिल्या
सीता, मांडवी उर्मिला रुक्मणी सी 
राह देखती रही तुम्हारी

हाय रे भाग्य ! रह गयी केबल देह मात्र
एक जीवित लाश

मैं भी पगली ! 
मौन तुम्हारे प्रेम में
नहीं पहचान पायी तुम्हारी छलना को
आज भी नहीं पहचानती
अगर तुमने नहीं कुचला होता 
मेरी आत्मा को
मेरे अंतस को


बस अब और नहीं
मैं लडूंगी स्वयं से, 
तुमसे,
इस समूचे समाज से, 
संसार से
  

हाँ याद रहे
बचना मेरी राह में आने से |



गीता पंडित 
19 दिसंबर 2012 


( 12 दिसंबर 1012 को दिल्ली में घटी बलात्कार की अमानवीय घटना के बाद)