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हाय रे सैय्याद !____
रौंदते हुए समय की रीढ़ को
दौड़ते हुए सड़कों पर
अनमने नहीं थे पाँव
जानते थे कहाँ रुकना है
जानते थे कहाँ पंहुचना है
मंजिल मालूम थी
रास्ते भी तय थे
पंख थे उड़ने के लिये
हाय रे सैय्याद !
कैसे हो गयी तुम्हारी कैची इतनी पैनी
पलभर में काट डाले ज़िंदगी के केश
अब बेवा बनी भटक रही है
अपनी ही बनाई राहों पर चलने के लिये
सच कहना
पर कतरते हुए
क्या कम्पन नहीं हुआ तुम्हारे ज़िस्म में ??
.......… गीता पंडित
16 / 4 / 14
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