Thursday, April 19, 2007

मैं क्यूँ बोलूँ

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मैं क्या बोलूं, मैं क्यूँ बोलूं.?
ग्रन्थी मन की मैं क्यूँ खोलूँ ?

किसने किसको कितना माना,
किसने किसको कितना जाना,
ये सब व्यर्थ की बातें हैं,
मन की बस सारी साधें हैं.

हँसना रोना,रोना-हँसना,
सुख-दुख का चलना फिरना,
रितु की गति बताती हैं,
जीवन को खेल दिखाती हैं,
धीरे से पास मेरे आकर,
चुपके से कुcछ कह जाती हैं,
ये सब व्यर्थ की बातें हैं,
मन की बस सारी साधें हैं.


सोचूं स्वयम के बारे मै,
जानूं स्वयम के बारे मैं,
साधूं खुद को,बाँधूं खुद को,
क्यूँ सोचूं नियति के बारे मैं,
जो लिखा भाग्य मैं मेरे है,
उसका मिलना तो निश्चित है,
जो मिला उसको अमय सा पी लूं,
जो मिला नहीं ,गरल सा छोङूं
ये सब व्यर्थ की बातें हैं...,
मन की बस सारी साधें हैं...


ये सब परिभाषाएं जीवन की हैं,
जीने के सुंदर दंग की है
जग एक बुदबुदा पानी का,
बनता-मिटता,मिटकर बनता,
कैसे उसको पकङूं मैं,
कैसे कर्मों से जकङूं मैं,
ये सब व्यर्थ की बातें हैं,
मन की बस सारी साधें हैं.


तेरा-मेरा,इसका-उसका,
जग मैं केवल एक सपना,
क्या लायी थी,क्या ले जाना,
मन क्यूँ इनमें भरमाना,
कोई तो ऐसा काम करूं,
मरकर भी जो जीवन पाऊँ,
ये सब व्यर्थ की बातें हैं,
मन की बस सारी साधें हैं.
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किसने किसको कितना माना,
किसने किसको कितना जाना,
ये सब व्यर्थ की बातें हैं,
मन की बस सारी साधें हैं.

मैं क्या बोलूं,मैं क्यूँ बोलूं
ग्रन्थी मन की मैं क्यूँ खोलूँ

गीता (शमा)

Tuesday, April 17, 2007

..बिन तेर..

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बिन तेरे कुछ भी नहीं, ,
कुछ भी नहीं
कुछ भी नहीं


मैं तेरे ही गीत गाती,
तुझको ही मैं गुनगुनाती,
बांसुरी तेरी बनाकर....
अधरों पे तुझको सजाती..
मैं बजाती......
मैं सजाती..
मैं सजाती..

बिन तेरे ना चैन पाती
बिन तेरे कुछ भी नहीं
कुछ भी नहीं
कुछ भी नहीं


तुम मेरी स्वाती सी बूंदें
जिसको ले मैं त्रिप्त होती,
तुम अमय हो उस मंथन का..
जिसको पी मैं अमर होती..
अमर होती,
अमर होती,

बिन तेरे ना चैन पाती..
बिन तेरे कुछ भी नहीं
कुछ भी नहीं
कुछ भी नहीं


तुम हो सुर सांसों क मेरे,
तेरे बिन वो रुक ही जातीं
मैं धरा तुम नभ हो मेरे,
देख जिसको मैं लजाती..,.
मैं लजाती,
मैं लजाती,

बिन तेरे ना चैन पाती,
तुझको ही बस गुन-गुनाती,
तुझको ही केवल बुलाती..,
तुझको ओठों पे सजाती......

बिन तेरे कुछ भी नहीं
कुछ भी नहीं
कुछ भी नहीं

शमा (गीता)

..शमा और शलभ..

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दर्द क़ो... मैने जिया है.,
दर्द को ... मैने सिला है,
तुम शलभ क्यूं आह भरते,
दर्द…..मैंने भी सहा है.....

रोज़ जलती..उफ़् किये बिन,
मौत की..परवाह किये बिन,
रोज़ जीती……रोज़ मरती…..,
राह तेरी…रोज़ तकती…....,

मैं अधूरी हूँ... तेरे बिन..,
मैं जलूँ ...कैसे तेरे बिन.,
आ…तू मुझको साथ ले फ़िर,
हँसकर प्राण करें विसर्जित..,

साथ तेरा ..कुछ पलों का..,
फ़िर से मिलना फ़िर बिछड़ना,
दर्द में...... डूबी है जाँ पर,
अथक चलती…..रोज़ जलती…

तू मत तड़प, सुन बात मेरी,
रोशन करें .....रातें अंधेरी,
साथ होंगे…...रात भर फ़िर.,
बिछड़ने की क्या बात करनी.,

साथ होंगे..…रात भर फ़िर..,
बिछड़ने की क्या बात करनी..

शमा (गीता)

..आदमी..

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पेट की इस भूख ने,
कैसा बनाया आदमी,,
भूल जाता है,तुझे..,
हर रोज़ मरता आदमी…..

जानता है वो,तुझे.,
पहचानता भी है,मगर,
ज़िन्दगी की दौड ने….,
कैसा फ़ँसाया आदमी…...

रीतियों को मान दें..,
कुरीति का दावा हो क्यूं ?
ज़िन्दगी के जाल मैं…. ,
कैसा है जकडा आदमी…...

हर-तरफ़ तेरा है जलवा,
हर तरफ़ तेरा वज़ूद्…
जग की आपा-धापी ने.,
अन्धा बनाया आदमी….....

पेट की इस भूख ने,
कैसा बनाया आदमी,,
भूल जाता है तुझे..,
हर रोज़ मरता आदमी…..

शमा (गीता)

Monday, April 16, 2007

मन पखेरू उड चला ....
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जाने कहाँ
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मन पखेरू उड़ चला..
जाने किधर...जाने कहाँ..,

व्यथित मन..,
चिंतित चितवन..,
करते अनावरत मन-मंथन..

मन पखेरू उड़ चला
जाने किधर....जाने कहाँ...,

अनुत्तरित प्रश्न..
करते विह्वल.....
होता आर्द्र...अंतःस्थल.......

मन पखेरू उड़ चला...
जाने किधर..जाने कहाँ, .

कोमल मन..,
आभामय तन...,
निर्मित करता अनगिनत सपन..

मन पखेरू उड़ चला
जाने किधर...जाने कहाँ,

चित की अगन..,
हो कर मग्न.....,
नृत्य करती नित-नूतन..

मन पखेरू उड़ चला..,
जाने किधर...जाने कहाँ,

अश्रु कण...,
बन के घन....,
बरसें निरन्तर हो सघन..

मन पखेरू उड़ चला...,
जाने किधर...जाने कहाँ,
गीता (शमा)