Friday, February 24, 2012

कोर नयन की भीगी-भीगी .... एक नवगीत ... गीता पंडित

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कोर नयन की 
भीगी भीगी 
सुबह से ही जगी रही |


कितनी हत्याएँ और चोरी
कहाँ डकैती आज पड़ीं ,
बलात्कार से कितनी सड़कें
फिर से देखों आज सडीं,
मानवता रो रही अकेली 
नयनों में लग गयी झड़ी, 
भरे चौराहे खडी द्रोपदी
अंतर विपदा रहे खडी ,

हर सुबहा के 
समाचार में 
ख़बर यही बस एक रही  |

खार हुए वो प्रेम प्रेम के
खेतों की फसलें सारी,
क्यूँ अग्नि में झोंकी जाती 
वो ममता मूरत प्यारी ,
भाई चारा दिखे कहीं ना 
एक पंक्ति भी मिले नहीं,
कैसी है ये पीड़ा मन की
बन जाती नदिया खारी,

मन के बरगद 
धूप पसरती
छैय्याँ मन की ठगी रही |

आज समय को हुआ है क्या 
कौन किसे समझायेगा,
फिर वो ही पनघट की बातें 
औ चौपालें लायेगा,
बुझे हुए हर मन के अंदर 
जला आस्था की ज्योति ,
मुस्कानों के फूल खिलाता 
हर एक द्वारे जाएगा,
मन मंदिर है 
प्रेम का मीते !
बात यही मन सगी रही ||

-गीता पंडित