Thursday, August 28, 2008

छोटी कविताएँ....

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कौन से थे वो बिंदु जिसमें,
उलझ कर मन रह गया,
एक पिपासित चातक बनकर,
शब्दो मे क्यूँ बह गया,

शब्द - अर्थ में खोकर अंतर,
अब कैसा पगलाया सा,
जाने क्या कहना चाहे,
ना जाने क्या अर्थ कह गया||
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शब्दों के जब अर्थ व्यर्थ हों,
और मौन हो जायें अनसुने,
पल पल में पल की ही काया,
अपने में हो जाये शत-गुने,


सम्मुख आने वाले पथ जब
पथ को पथ में ही खो दें,
धीरे से फिर व्यथा वेदना
अश्रू अंतर्मन में बो दे


गीता पंडित (शमा)

Saturday, August 9, 2008

एक ही बाती एक दीप की....

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सूनी - सूनी पगडण्डी,पर निरख ना पथ का सूनापन,
गति पाँवों को देना दिनकर की,अथक सतत अपनापन,
मंजिल दूर ना होगी पग से,स्वेद - कण बरसाना मन,
श्रम-जल से सिंचित राहों पर,अनवरत आगे बढना मन।

चुभें लाख शूल पग में या,रोक रहे हों रस्ता विषधर,
पाहन से पथरीले पथ पर,पाँव बढाना साहस रखकर,
चाहे कितनी हो बाधाएं, रोक नहीं पाएंगी रे मन !
एक बार तुम पी लेना,परिश्रम की प्याली को छककर।

पीने से बार - बार व्याकुल मन, रोक नहीं पायेंगे,
अवनि- अम्बर झुक जायेंगे, जब भी पाँव बढायेंगे,
एक मुसाफिर एक राह,राहें ना बदल कर चलना मन !
एक ही बाती एक दीप की,भोर भये तक जल जायेंगे।

दर्प - दीप जलने ना देना, भय - ग्रस्त करेगा राहें,
होंगी दूभर फिर सहनी , विद्वेष की अनचाही बाहें,
अनजाने पथ का पथिक अरे ,डगर भूल ना जाना मन !
शाम ढले सूरज चल देता, तुझको भी चलना है मन ।

नित-नूतन विश्वासों के संग, बनना टूटे बल का सम्बल,
कीर्तिमान की विजय-पताका, फहराना उत्तुंग-शिखर पर,
धूप - छाँव में जीवन की,अविकल कदम बढाना रे मन !
अपने मन की हरी दूब से, जग भी हरा बनाना मन ।|

गीता पंडित (शमा)

Friday, August 8, 2008

हाय ! रह ना पाती....

मिल जाये,अंधकार को,कितनी भी आजादी,
बुझ पायेगी ना, अंतर्मन जो जलाये बाती,
डिगें ना प्रण से, कहतीं वेद - रिचाएं सारी,
ले देख देव-लोक भी,आज हिय की आचारी,


धारे देखो, निस्वार्थ - भाव से, नदी बहाती,
तरु - वर की सौगातें, नित ही हमें लुभातीं,
सूरज की थाती बिना मोल, कैसे बिक जाती,
थक जाने पर, लोरी गाने क्यूँ रजनी आती,


बदलती ॠतुएँ , गुण जीने के सिखला जातीं,
आस का बिगुल बजाकर भोर किरण मदमाती,
ओढ अम्बर की चादर, झूम कर बदली गाती,
अवनि भी बूंदों संग, ताल से ताल मिलाती,


योगी-यति,मुनि,ग्यान-वान साधक और ध्यानी,
पाते अंतर में उस को, जो है सबका मानी...,
मोह - पिपासा में खो जाती ,अंतर की वाणी.,
आसक्ति करती नर्तन,मन - उपवन में अभिमानी,


हाय ! रह ना पाती, मन की सुंदरता न्यारी,
पग-पग पर वो,अपनी ही मृग-तृष्णा से हारी,
जग मिथ्या,केवल जनम-मरण की एक निशानी,
माटी का तन, हर पल लिखे, एक नयी कहानी ||


गीता पंडित (शमा)

Thursday, August 7, 2008

पी का संदेसा नहीं लाएं....

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मन मेरा आली ! डर जाये,
मेरे पिया, अभी ना आये |


उमड़-घुमड़ घनघोर - घटाएँ,
जब भी नील-गगन में छायें
बिजली की ले दीप्त ध्वजाएं,
दिग - दिगांतर में फहराएँ,

मन मेरा आली ! डर जाये,
मेरे पिया, अभी ना आये |


यूँ सारा सुनसान - सदन ये,
पर घन की आवाज सघन ये,
नित बादल घिर मुझे डराएं,
पी का संदेसा नहीं लाएं ,

मन मेरा आली ! डर जाये,
मेरे पिया अभी ना आये |


प्रथम दामिनी बाहर चमके,
दूसरी अंतर्मन में दमके,
जलती बुझतीं अभिलाषाएं,
दिप-दिपा उडगन सी जायें,

मन मेरा आली ! डर जाये,
मेरे पिया अभी ना आये |


गीता पंडित (शमा

Tuesday, August 5, 2008

हर सुबह लेकर जो आये ....

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हर सुबह लेकर जो आये भोर की पहली किरण,
जाग उठें फिर से मन के,खोये हुए सारे सपन,
आस्था और नेह की, बाती जले, जलती रहे,
और थोड़ी सी महक ,दे जाये बासंती - पवन,


धूप को आना है आये, तुम उसे ना रोकना,
छाँव बनकर विटप की मन, अपने ऊपर ओढना,
हाँ थकाने आयेंगे पल अंक में भर-भर हिमालय,
स्वेद-कण मोती की मानिंद,हौले - हौले पोँछना,


ऐसे सौरभ की घड़ी, फिर से ना आये क्या पता,
आज है जो गीत-सरिता, कल भी होगी क्या पता,
बाँध लो मन इन पलों को,आज शब्दों के वसन में,
और उतारो गीत में फिर, प्रीत की आकाश - गंगा ||


गीता पंडित (शमा)

माँ ...

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तुम क्या नहीं हो..माँ

आँख हो मेरी
देखती हूं जिससे
मैं ब्रहमाण्ड,

मेरी धमनियों में
बहता रक्त हो जो
देता है मुझे जीवन,

हो हड्डी,माँस-मज्जा.
जो देती है मुझे ताकत
पाँवों पर अपने
खडे होने की,

तुम दिमाग हो
जो कराता है अहसास
मुझे सही गलत का,

तुम हो ईश्वर,
क्योंकि तुम हो कारण सृष्टि का
निमित्त हो उत्पत्ति का,

तुम माँ हो...माँ
तुम्हें शत - शत - नमन ॥

गीता पंडित (शमा
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