Wednesday, October 15, 2014

तुम्हारे लिए ---- गीता पंडित

.....
......


तुम्हारे लिए_______

मैंने तुम्हारे लिए संभालकर रखे हैं
थोड़े से फूल
जो मह्कायेंगे तुम्हें तब
जब होगी इनकी जरूरत तुम्हें सबसे ज़्यादा
थोड़े से सपने
जो तुम्हें उकसाते रहेंगे
कुछ और नया करने के लिए
थोड़ी सी खुशी
जब तुम होगे बहुत उदास
अपना पूरा साथ जब तुम होगे
बहुत तन्हा
और बहुत सारा प्रेम
ताकि दुनिया को देख सको एक प्रेमी की तरह
जाओ सारी पृथ्वी आकाश
सूरज चाँद तारे
पेड़ पौधे फूल पत्ते झरने पहाड़
सब हैं तुम्हारे
केवल तुम्हारे
मेरे बच्चे ! 

..... - गीता पंडित 
10/15/2014

( विभोर के साथ सभी युवाओं को अशेष शुभ कामनाओं के साथ सप्रेम समर्पित )

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Tuesday, September 23, 2014

समय नहीं बख्शेगा तुमको ....... गीता पंडित


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समय नहीं बख्शेगा तुमको___

रक्त पिपासक 
समय हो रहा 
अब क्यूँ मूक बने डोलो

प्राचीरों में दबी घुटी सी
सोई किसकी
सिसकी है
तहखानों में बंद राज सी
देखो किसकी
हिचकी है

बच्चा –बच्चा बने सिपाही
गद्दारों को
हो फाँसी
जो भी देश के दुश्मन हैं
वो सारे हों
वनवासी

जात-पात 

भाषा के झगड़े
अब तो मन-तन पर तोलो

पैंसठ वर्ष हो गये अब क्यूँ
नहीं दिखा
भाईचारा
कौन यहां जीवित है बोलो
जीवन क्यूँ
खुद से हारा

बंदी हुई भावना क्यूँकर
स्वार्थ हुआ
सब पर भारी
राजतंत्र के सम्मुख घुटने
टेक रही
है लाचारी

समय नहीं 

बख्शेगा तुमको
कम से कम अब तो बोलो


_गीता पंडित 

२२/९/`१४ 


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Tuesday, August 26, 2014

ध्यान से देखो ... गीता पंडित

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कविते ! 
आओ ना 
देखो 
ध्यान से देखो 
अकवि होते हुए समय को 

देखो सच की अभेद्य प्राचीरों में 
सेंध लगाते हुए झूठ को 

अगीत होती 
सिसकती हुई इस धरा को 

ढूँढो 
ढूँढो स्वयं को कविते !


इस गद्यात्मक समय को
फिर से सिखाओ
लय ताल में गाना

आह !!!!
बिना तुम्हारे अधूरा है
समय का संगीत 


आओ !!!!! 
........ ..


गीता पंडित
27 / 8 / 14

Monday, July 28, 2014

चाँद निकला है.. ..गीता पंडित

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चाँद निकला है.. 
वो कहते 
ईद है 

सबकी देखो 
अपनी - अपनी 
ईद है 

बिन तुम्हारे .....
कैसे बोलूं 
ईद है 

दीद हो जाये .......
तो मेरी 
ईद है
.........



गीता पंडित
29/7/2014

Tuesday, July 22, 2014

मन और समय को शब्द देते गीता के नवगीत ......नरेंद्र दुबे





 नवगीत विधा की समर्पित हस्ताक्षर  
 
 
हिंदी नवगीत विधा में एक समर्थ और समर्पित नाम है -गीता पंडित। पूर्व में ' मौन पलों का स्पंदन ' और 'अब और नहीं बस ' जैसे बेहतर नवगीत संग्रह समाज को समर्पित कर चुकी गीता जी का नया नवगीत संकलन ' लकीरों के आर - पार ' हमारे सामने है। स्व का विस्तार लोक तक पहुँचाने में कवियत्री सफल रही है। गीता के गीतों में काव्य संस्कार , परंपरा बोध ,सरस बयानी ,और गरुङ दृष्टि अभिव्यक्त होती है। जग की पीड़ा को शब्द देना उनका मकसद है -' हरेक मन की पीड़ा गाकर / पीड़ा में / मुस्काती हूँ /…पीर भरी मैं पाती कोई / गीत से मन सहलाती हूँ /' संकलन के सारे गीत बेहतर रवानी देते है ,वे समय और परिवेश को बेबाकी से अभिव्यक्त करती है। बहुत दिनों बाद उम्दा नव गीत पढ़ने को मिले। जिनने अंतर्मन को छुआ। शलभ प्रकाशन दिल्ली ने सुन्दर आवरण और सुरुचि पूर्ण संयोजन के साथ पुस्तक का प्रकाशन किया है। गीता पंडित जी को सुन्दर सृजन के लिए बधाई और मंगलकामना है वे उत्तरोत्तर साहित्य को समृद्ध करती रहे। - नरेंद्र दुबे


मन और समय को शब्द देते गीता के नवगीत 
_____________________________________
                                                                                                                                                                                                                                                                
                गीत से नवगीत की यात्रा में एक और समर्थ एवं समर्पित नाम जुड़ा है- गीता पंडित का। पूर्व में मन तुम हरी दूब रहना’ काव्य संग्रह और मौन पलों का स्पंदन’ जैसा बेहतर नवगीत संग्रह समाज को समर्पित कर चुकी गीता पंडित का नया नवगीत संकलन लकीरों के आर-पार’ हमारे सामने है। इस संग्रह के नवगीत अपनी चेतना में समयसमाज और परिवेश को गहरी संवेदनशीलता के साथ अभिव्यक्त करते हैं। गीत विधाकाव्य में परम्परा का नाम है और नवगीतपरम्परा के साथ प्रगतिशील चेतना का उन्नयन। गीता पंडित का काव्य सृजन भी इसी भाव-धारा का है। वे जड़ों से जुड़ाव भी रखती हैं और आधुनिकता में प्रगति के सोपानों पर चढ़ने में गुरेज नहीं रखतीं। संकलन में उनके गीतों के पट  खुलते उसके पूर्व एक खाली पृष्ठ पर माँ वीणा-पाणी का गरुड़ आरूढ़ छोटा सा चित्र है और कोई शब्द नहीं। यह चित्र ही गीता पंडित के काव्य संस्कारपरम्परा बोधसरस बयानी और  गरुड़ दृष्टि को अभिव्यक्त कर देता है।

                कवयित्री के मन-मानस में नवगीत इस तरह रचा-बसा है कि वह आमुख में भी अपनी बात गद्य की ठेठ भाषा में न कहकर गद्य-काव्य की सरसता में पाठक से कहती है। कृतज्ञता से लबरेज गीता पंडित ने अपनी इस कृति को नवगीत सृजन की प्रेरणा देने वाली साहित्यकार पूर्णिमा वर्मन को समर्पित किया है। सुश्री पूर्णिमा वर्मन ने ही इस संग्रह की सुन्दर और यथेष्ठ भूमिका लिखी है। उन्होंने बगैर किसी बौद्धिक लगा-लपेट के गीता के काव्य व्यक्तित्व और सृजन धर्मिता पर कम शब्दों में अर्थपूर्ण बात कह दी है।

                जब सृजन-यात्रा में अनुभूति की सच्चाई और लोक की पीड़ा को शब्द दिए जाते हैं तो रचना समय और परिवेश को व्यक्त करने लगती है और रचनाकर्म अपनी सार्थकता सिद्ध करता है। गीता पंडित की रचना धर्मिता में सामाजिक सरोकारों की प्रधानता है। जग की पीड़ा को शब्द देना ही उनका अभीष्ट है- हरेक मन की पीड़ा गाकर / पीड़ा में/मुस्काती हूँ।...पीर भरी मैं पाती कोई / गीत से मन/सहलाती हूँ। संकलन के सारे गीत बेहतर रवानी देते है ,वे समय और परिवेश को बेबाकी से अभिव्यक्त करती हैं। बहुत दिनों बाद उम्दा नव गीत पढ़ने को मिले। जिन्होंने अंतर्मन को छुआ।                 

लकीरों के आर-पार’ की पहली कविता ही ये कैसा बंटवारा’ हमारी व्यवस्था एवं समाज में व्याप्त अन्याय एवं असमानता पर करारा प्रहार है। गीत का बिम्ब काली पट्टी बंधी आँख पर / दिखता नहीं नजारा / ये कैसा बंटवारा ’ महाभारत से लेकर आज के भारत तक का दृश्य सामने ला देता है। आँख पर काली पट्टी अँधे राजा धृतराष्ट्र की रानी गांधारी और आधुनिक न्याय की देवी दोनों का चित्र उपस्थित कर देती है। यानी अन्याय का सिलसिला पुराना है। दरअसल यहां मेहनतकश श्रमिक की पीड़ा बयान की है। एक अन्य कविता में किसान की हकीकत को भी यूं कहा है-जो जीवन देने की खातिर / अपना रक्त / बहाता है / क्या मिलता है उसको जग में / यूं ही वो / ढह जाता है 

                गीता जी को नये वर्ष का आगमन हमेशा उत्साहित करता है और वे उल्लास और आशा भरी भावनाएं पाठकों को समर्पित करती हैं। नये साल पर उनकी एकाधिक कविताएं हैं। नई आस / विश्वास आस्था ’ के पथ पर नयी रश्मियों से मुलाकात कराती हैं। कवयित्री जीवन में उजास की पक्षधर हैं। वे पाठक को मृत्यु के दर्शन से भी अवगत कराती हैं-आपाधापी चहूँ ओर है / अफरा-तफरी भारी / जाने कब / किसकी हो जाये / मृत्यु याचिका जारी ’ साथ ही फिर दिन फिरेंगे’ में आस का दीपक भी जला देती हैं।  वक्त को शब्द देता रचनाकार सामाजिक विद्रूपताओं से कैसे किनारा कर सकता है। गीता जी ने तकनीक और नए चलन के कारण दूर होते अच्छे जीवन पर भी चिन्ता व्यक्त की है-

कुंज गली वो नेह की बतियाँ / रास रंग सब खोया / प्रगति सारी कम्प्यूटर में / नेह कहां अब   सोया 

                कवयित्री ने आजादी के लिए अपनी जान लुटाने वाले शहीदों को याद कर नई पीढ़ी को आगाह किया है-करें प्रण आज हम फिर से / ना भूलेंगे वो कुर्बानी / कि जिसके वास्ते / देखो लहू हमने बहाया है ’ हिंसा और आतंक के दौर में गांधी दर्शन की प्रासंगिकता का जिक्र है-

गांधी की करनी-कथनी की / समता को हम भूल रहे / प्रेम अहिंसा / के धागों को / तोड़ कहां पर झूल रहे  

                समीक्ष्य संकलन की रचनाओं में विषय वैविध्य है और जिंदगी के हर पहलू पर कवयित्री की नजर है। महानगरीय जीवन में रिश्तों के खालीपन को उन्होंने शिद्दत से महसूस किया है और वृद्धाश्रमों में जा रहे बुजुर्गों को देख वे कराह उठती हैं। वे कहती हैं-

एक फ्लैट में / सिमट रहा है / सारा जहां अजाना / रिश्तों की चूड़ी टूटी है / घाव करे मनमाना ’ 

गीता जी के नवगीतों में प्रेम-सौंदर्य की सदानीरा बहती है तो रूहानी अंदाज भी है। सपनों की / आदत खराब है / सांकल नहीं बजाते/’ इस गीत में कजरी-चैती गाती  सखियां उन्हें याद आती हैं। मन से टूटे लोगों को वह यूं आस बंधाती हैं-

प्रेम कहां / कब बूढ़ा होता / फिर से गायें गीत प्रेम के 

                मन की व्यथा बांचने और समय की गति नापने में कवयित्री निष्णात है। वे खो गई कविता के बावत कहती हैं- कोसों दूर / चली है मन से / मस्तक के हैं स्वर आलापे / दिल की बस्ती / है बंजारन / कैसे मन की जगति नापे ’ गीता पंडित के समीक्ष्य संकलन की बानगी के रूप में यदि केवल एक गीत पढ़ना हो तो वह है-मन की खूंटी टंगे हुए हैं। इस नवगीत में घरपरिवारसमाज और परिवेश सब कुछ समाहित है और उनकी अपनी सृजन क्षमता भी। गीत में समाहार देती हैं कि प्रेम बिना / निस्सार है जीवन / किसको ये सिखलायें 

                समग्र रूप से कहें तो समीक्ष्य संकलन के अधिकांश गीत भाषा सौष्ठवशब्द प्रयोगबिम्ब विधान और शिल्प की दृष्टि से बेहतर पायदान पर खड़े हैं। उनकी रचनाओं में कृत्रिमता नहीं है। वे शहर में रहकर गांवकस्बों की बात नहीं करतीं। जो देखा भोगा उसे अभिव्यक्त किया है। हांदो-एक गीतों में एक बात खटकती है कि कवयित्री जिस तरह गीत में उठान लेती हैं और आगे तक उसका निर्वाह भी करती हैंउस तरह उपसंहार की बेला में सरसता नहीं रह पायी। थोड़ी सी चूक सुधरेगी तो उन गीतों में भी भाव संप्रेषण उम्दा होगा।

                रचना से रचनाकार को जानना किसी काव्य-व्यक्तित्व को जानने की श्रेष्ठ विधि है। लकीरों के आर-पार’ के नवगीतों से गुजरने के बाद बेहिचक कह सकते हैं कि गीता पंडित परिपक्व और काव्य संभावनाओं से ओतप्रोत रचनाकार है। उनकी कहन और भाव बोध उम्दा है। भाषा की सादगी और सरलता के कारण उनके नवगीतों में संप्रेषणीयता हैजो उन्हें सार्थकता देती है।

शलभ प्रकाशन दिल्ली ने सुन्दर आवरण और सुरुचि पूर्ण संयोजन के साथ पुस्तक का प्रकाशन किया है। गीता पंडित जी को सुन्दर सृजन के लिए बधाई और मंगलकामना है वे उत्तरोत्तर साहित्य को समृद्ध करती रहें |                 

मेरा विश्वास है उनकी रचनाएं हिन्दी काव्य जगत में सहर्ष समादृत होंगी।
                                                                                                                                                                                                                                                                नरेन्द्र दुबे
                                                   गार्ड लाइन दमोह म.प्र.                                                                                                                                                                                                                                                                                                              
                                                                                                                                                                                                                                                                                                 
लकीरों के आर-पार
गीता पंडित , 
शलभ प्रकाशनदिल्ली
210 रुपये ,
 मो. 9810534442

Monday, July 7, 2014

दीवानों सी हालत है ........गीता पंडित

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दीवानों सी हालत है 
लानत और मलानत है 

धर्म की बातें करता है 
धर्म कहाँ कब जानत है 

इक रोटी की खातिर ही 
मेहनत औ महारत है 

बादल कब तक रूठोगे 
धरती रोज़ मनावत है

'गीता'किसकी बात करे 
अपने पर ही लानत है 
........




गीता पंडित
७/७/१४ 

Thursday, July 3, 2014

बस इत्ता भर ... (एक कविता) ......गीता पंडित

....
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अनंत यात्रा पर होता है तन 
कितने शहर 
कितने पथ 
कितने चौराहे 

कितने लोग 
जाने अनजाने 
कुछ कद में बड़े तो मन से छोटे
कुछ तन से छोटे और मन से बड़े 

अगम्य सुरंगें 
अगम्य नदियाँ 
ताल झरनों से गुज़रता हुआ 
भूल जाता है अपने गंतव्य को 

खोया-खोया सा स्वयं से करता है प्रश्न 
कहाँ जाना था 
कहाँ आ गया 

अनुत्तरित प्रश्न 
अनुत्तरित जीवन 

चार कहार 
और अजानी सी अंतिम यात्रा 

अहो !!!!!!!

बस इत्ता भर मिलना 
बिछुड़ना 
मिलना

निरंतर यात्रा में
होता है जीवन 
....... 




गीता पंडित 
3 / 7 / 14

Monday, June 30, 2014

बारिश ने फिर भिगो दिया है........गीता पंडित

.....
.........


इस बार की बारिश ने फिर से शब्दों को भिगो दिया ... आप भी भीगें ..... भीगे या नहीं ??

भीगी-भीगी महकी-महकी 
पवन बावरी द्वारे आयी । 

संग खड़ी बदली को देखो 
इठलाये और
शोर मचाये
बूँद चली अपने पीहरवा
पात-पात पर
फिसली जाए

कभी मुँडेरी चढ़ जाती है
कभी धम्म से
कूदे आँगन
तप्त जून की दोपहरी में
ले आयी है
देखो सावन

सपने चढ़े अलगनी मन की
नयनन-नयनन वारे आयी

कहीं खिड़कियों के अंदर से
झाँक रहीं
दो नटखट आँखें
दूर - दूर तक राह निहारें
बिन मीते
पथराएँ पाँखें

बादल बैरी ! जा रे जा रे
जहां बसे पी
आज हमारे
सुध - बुध बिसराने क्यों आये
ले आ सजन
साथ में गा रे

यादों की ये कैसी बदली
जो आँसू बस धारे आयी ।

__गीता पंडित



Thursday, May 29, 2014

ये भ्रम है या कोई सपना .... गीता पंडित

…… 
……… 



ये भ्रम है या कोई सपना ____


सबका इतना मिला स्नेह कि
आँसू छलक गये

सदियों से थी रही पिपासित
नदिया बड़ी अकेली
यहाँ मिल गये साथी संगी
कितनी मिली सहेली

प्रेम निधि है सबसे प्यारी
आँसू पलक गये

ये भ्रम है या कोई सपना
चाहे जो भी हो
पल भर की जो खुशी मिली है
उनको गह भी लो

बातें करते - करते देखो
आँसू ढलक गये 
.......



गीता पंडित 

Wednesday, April 23, 2014

शमशान का सन्नाटा ....... गीता पंडित




कहो तो ______
.................


होने में न होना 
तुम्हारा 
न होने में होना 
विकलांग नहीं बनाता समय को 

किन्तु  
पंगु बना देता है 
प्रेम के उस समंदर को 
जिसमें सुनामी आती है बिना बताये 
और बहा ले जाती है अपने साथ 
महकते 
चहकते 
बाग़-बगीचे 
हरियाली के बिछे गलीचे 
सारे महल-दुमहले

जीवन के काँधे पर 
लद जाती हैं जीवित लाशें 
शमशान का सन्नाटा 
बदबूदार हवाएं 

अवरुद्ध कर देती हैं साँस  लेने के रास्ते 


किसको भायेगा 
कहो तो
......... 



गीता पंडित 
4 / 12 / 13

Monday, April 21, 2014

मुक्तक ........गीता पंडित

......
.......



1)

साँझ के द्वार पर फिर उदासी खड़ी 

सोचता है ये मन क्यों उबासी बड़ी 

ये हवा जो चली  विष भरी है यहां

आसुरी है क्यों पल और बासी घड़ी 
...........





2)

ओम ऐम ह्रीं क्लीम वोटराय नम:

यही जाप करते हुए दिख रहे वो 

बहुत उनमें अनपढ़ अंगूठा लगाते 

किस्मत हमारी मगर लिख रहे वो 
....... 


गीता पंडित
22/4/14

Wednesday, April 16, 2014

हाय रे सैय्याद ..... गीता पंडित


.....
.........

हाय रे सैय्याद !____

रौंदते हुए समय की रीढ़ को
दौड़ते हुए सड़कों पर
अनमने नहीं थे पाँव
जानते थे कहाँ रुकना है
जानते थे कहाँ पंहुचना है

मंजिल मालूम थी
रास्ते भी तय थे
पंख थे उड़ने के लिये

हाय रे सैय्याद !
कैसे हो गयी तुम्हारी कैची इतनी पैनी
पलभर में काट डाले ज़िंदगी के केश

अब बेवा बनी भटक रही है
अपनी ही बनाई राहों पर चलने के लिये

सच कहना
पर कतरते हुए
क्या कम्पन नहीं हुआ तुम्हारे ज़िस्म में ??


.......… गीता पंडित
16 / 4 / 14

Friday, April 11, 2014

मैं स्त्री थी ......गीता पंडित

....
......



मैं स्त्री थी 
बाँट दी गई 
माँ बहन बेटी पत्नी में. 

देवी कहकर 
अपमानित किया 
देवदासी कहकर 
अपने भोग की वस्तु बनाया. 

बलात्कार कर 
हत्या की मेरे अस्तित्व की 
वैश्या तुम्हारा दिया नाम है 
परित्यक्ता नाम भी 

तुम्हारी ही देन

आह !!!!!
नहीं दे पाये तो बस एक नाम
' सहचरी ' 
क्या मैंने बहुत ज़्यादा चाहा था ? ?
...........


गीता पंडित

11/4/14

Wednesday, April 2, 2014

हाँ याद रहे ...... गीता पंडित

.....
........ 


मेरा प्रेम समर्पित था 
तुम्हारे लियें
तुम्हारी इच्छाओं के लियें
तुम्हारे सुख-सौंदर्य-वैभव के लियें

कहाँ रास आया तुम्हें
देवी बनाकर मुझे 
बना दिया बंधक

मैंने कभी नहीं ललकारा 
तुम्हारे पुरुषत्व को

तुमने ललकारा मेरे स्त्रीत्व को
एक बार नहीं, दो बार नहीं 
जाने कितनी बार 
बरसों सदियों 

भूल गये मेरा मन, 
मेरी चेतनता, मेरा प्रेम, मेरा समर्पण
यहाँ तक कि मेरा अस्तित्व

बन गयी अहिल्या
सीता, मांडवी उर्मिला रुक्मणी सी 
राह देखती रही तुम्हारी

हाय रे भाग्य ! रह गयी केबल देह मात्र
एक जीवित लाश

मैं भी पगली ! 
मौन तुम्हारे प्रेम में
नहीं पहचान पायी तुम्हारी छलना को
आज भी नहीं पहचानती
अगर तुमने नहीं कुचला होता 
मेरी आत्मा को
मेरे अंतस को


बस अब और नहीं
मैं लडूंगी स्वयं से, 
तुमसे,
इस समूचे समाज से, 
संसार से
  

हाँ याद रहे
बचना मेरी राह में आने से |



गीता पंडित 
19 दिसंबर 2012 


( 12 दिसंबर 1012 को दिल्ली में घटी बलात्कार की अमानवीय घटना के बाद)