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पेट की इस भूख ने,
कैसा बनाया आदमी,,
भूल जाता है,तुझे..,
हर रोज़ मरता आदमी…..
जानता है वो,तुझे.,
पहचानता भी है,मगर,
ज़िन्दगी की दौड ने….,
कैसा फ़ँसाया आदमी…...
रीतियों को मान दें..,
कुरीति का दावा हो क्यूं ?
ज़िन्दगी के जाल मैं…. ,
कैसा है जकडा आदमी…...
हर-तरफ़ तेरा है जलवा,
हर तरफ़ तेरा वज़ूद्…
जग की आपा-धापी ने.,
अन्धा बनाया आदमी….....
पेट की इस भूख ने,
कैसा बनाया आदमी,,
भूल जाता है तुझे..,
हर रोज़ मरता आदमी…..
शमा (गीता)
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