Friday, August 10, 2018

एक कविता - कभी-कभी बरगद होना भी - गीता पंडित

कभी-कभी बरगद होना भी -
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बरगद होना 
अपने आप में सार्थक होना है  
डालियों पर झूलते घोसले 
चहचहाते परिंदे  
उसके वर्चस्व का स्थाई पता हैं

घनी छायादार डालियाँ 
झूम-झूमकर अभिनंदन करती हैं
उन थके हारे 
लहुलुहान गिरते-पड़ते पांवों का 
जिन्हें सूरज ने लताड़ा 
जिन्हें समय ने दुत्कारा 
जिन्हें कुबड़ा बनाने में 
शकुनी-समय ने फेंके थे पासे 

यहाँ गीत है प्रेम का 
कविता है प्यार की 
पात-पात पर लिखे होते हैं 
अलिखित प्रेम के आलेख 

कभी-कभी बरगद हो जाना भी 
हो जाना है खतरनाक 
डालियों पर पल जाते हैं विषैले भुजंग 
जिनकी सरसराहट 
आमद है किसी बड़े खतरे की

वे हो जाते हैं नीलकंठी ( विष वमन करने वाले ) 
जिनका विष 
सफा चट कर जाता है 
नव अंकुरित पल्लवों को
चहचहाते पंछियों को 

नयी हवाओं को 
दहशत में रखना जिनका शगल है 

लेकिन समय पैनी नज़रों से सब देखता है 
वह दर्ज करता रहता है 
इन असभ्य पलों को अपनी डायरी में 
चुपके से करता है शब्दों से कुठाराघात

और बरगद विस्मय से 
देखता है इस अनहोनी को 

बरगद का ठूँठ हो जाना भी 
होता है शर्मनाक और अहितकारी |........

गीता पंडित 
8/11/18  






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