Friday, August 10, 2018

एक नवगीत - झाँक रहीं खिड़कियाँ कब से -गीता पंडित

 
 
 
झाँक रहीं खिड़कियाँ कब से-
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झाँक रहीं 
खिड़कियाँ कब से 
कोई दिक्खा नहीं दूर तक 
 
कितनी आबादी दुनिया में 
फिर भी पथ पर वीराने हैं 
बूढ़ी अँखियाँ 
बाँझ हो गयीं 
हम सपनों के दीवाने हैं 
भूख तड़प
पीड़ा बेचैनी 
किन अर्थों में जीवन है ये 
श्वासों का ये चक्र बोझ है 
धड़कन के फिर
क्या माने हैं 
 
 
 
लिक्खी गयीं 
किताबें कितनी 
जीवन लिक्खा नहीं दूर तक 
झाँक रहीं खिड़कियाँ कब से 
कोई दिक्खा नहीं दूर तक 
 
 
 
सागर की ये अमिट कहानी 
प्यासा जीवन खारा पानी 
आखर-आखर 
गुँथा हुआ है 
पीर ह्रदय की रहा बखानी 
अंधी गलियाँ
रीति नदियाँ 
देख कटीली बाढ़ यहां पर 
घायल हिरणी रहे सुबकती 
पशुता की हर
एक निशानी 
 
 
 
खोटा सिक्का
चले यहाँ पर
कोरा सिक्का नहीं दूर तक
झाँक रहीं खिड़कियाँ कब से 
कोई दिक्खा नहीं दूर तक ||
 
#गीतापंडित
11 अगस्त 2018
 
(दह्लीज़ के भीतर-बाहर) संग्रह से

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