झाँक रहीं खिड़कियाँ कब से-
______________________
झाँक रहीं
खिड़कियाँ कब से
कोई दिक्खा नहीं दूर तक
कितनी आबादी दुनिया में
फिर भी पथ पर वीराने हैं
बूढ़ी अँखियाँ
बाँझ हो गयीं
हम सपनों के दीवाने हैं
भूख तड़प
पीड़ा बेचैनी
किन अर्थों में जीवन है ये
श्वासों का ये चक्र बोझ है
धड़कन के फिर
क्या माने हैं
लिक्खी गयीं
किताबें कितनी
जीवन लिक्खा नहीं दूर तक
झाँक रहीं खिड़कियाँ कब से
कोई दिक्खा नहीं दूर तक
सागर की ये अमिट कहानी
प्यासा जीवन खारा पानी
आखर-आखर
गुँथा हुआ है
पीर ह्रदय की रहा बखानी
अंधी गलियाँ,
रीति नदियाँ
देख कटीली बाढ़ यहां पर
घायल हिरणी रहे सुबकती
पशुता की हर
एक निशानी
खोटा सिक्का
चले यहाँ पर
कोरा सिक्का नहीं दूर तक
झाँक रहीं खिड़कियाँ कब से
कोई दिक्खा नहीं दूर तक ||
#गीतापंडित
11 अगस्त 2018
(दह्लीज़ के भीतर-बाहर) संग्रह से
No comments:
Post a Comment