Wednesday, August 29, 2012

क्यूंकि मैं एक स्त्री हूँ ....... गीता पंडित

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सूर्य की तपती हुई

आँखों में आँखें डालकर

मैं अडिग अब भी खड़ी हूँ 


वो अलग है भाप बनकर के जली हूँ

समय की वेणी बनाकर

गूंथ ली है भाल में

हाँ सुरभी से बेशक लड़ी हूँ


हर असत की पीठ पर कोड़े लगाकर पल पलक में

किरकिरी बनकर पड़ी हूँ

हाँ अभी मैं अन-लिखी हूँ , अन-पढ़ी हूँ


फिर भी देती हूँ अमावस को चमक में 

और पूनम की सदा बन पूनमी बनकर झड़ी हूँ


क्यूंकि मैं एक स्त्री हूँ ...

इसलियें मैं जी रही हूँ 



गीता पंडित

३० अगस्त १२ 

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