अंखियाँ बैठी हुई द्वार पर मन किसको यूँ आज पुकारे,
रेत सरीखा जीवन कैसा पल पल मन के नयन निहारे ...... ...
कभी-कभी श्वास लेना भी इतना दूभर क्यूँ हो जाता है प्रश्न केवल प्रश्न जो हमेशा
अनुत्तरित रहते हैं जीवन केवल एक पहेली बनकर आपके सामने रहता है चाहकर
भी, जीवनभर सुलझाते सुलझाते ताना-बाना उलझता जाता है जीवन का सौंदर्य,
जीवन की वो प्यास, वो ललक कहाँ गायब हो जाती है ...
किससे पूछें....?
आज का ही दिन 4 दिसंबर ____ रोड एक्सीडेंट और ___ 20 वर्ष का प्यारा सुमन
जिसे नेह से " निर्झर ' कहते थे टहनी से बिछड़ गया |
टहनी तो टूटी ही, डाली-डाली बिलख पड़ी, बरगद की पीठ झुक गयी | आह !!!!!!!!!!!!!
" मौन पलों का स्पंदन " मेरे गीत नवगीत संग्रह से एक कविता आज उस जैसे
हर सुमन के , हर टहनी के , हर डाली के और हर बरगद के नाम _____
....
तुम थे तो दो चार बात मैं
तुमसे कर लेती थी लेकिन
आज तुम्हारे बिन किससे मैं मन की बात कहूंगी बोलो |
सूना द्वारा राह निहारे
ड्योढ़ी नयनन नीर बहाये
भरे अंजुरी सारी बातें
प्राचीरों पर लिख-लिख आये
अँखियों के पथ धुंधला आये, कैसे तुम्हें पढूंगी बोलो |
गंध रची वो ही मन-आँगन
वो ही रंग रचे मन फागन
पागल होकर राह तकें जो
कहाँ गये मन के वृन्दावन
एकाकी सूने पल - पल में, कैसे तुम्हें गठूंगी बोलो |
जन्म-मरण का खेल पुराना
माटी का तन मान रही हूँ
गीता का संदेश भी मन से
मन के अंदर जान रही हूँ
फिर भी तुम बिन बेकल अंतर, कैसे धीर धरूंगी बोलो |
आज तुम्हारे बिन किससे मैं मन की बात कहूंगी बोलो ||
.......
" निर्झर की याद में "
" पत्ता टूट गया टहनी से, तरुवर की आँखें हैं नम
फिर से जीवन दोहराएगा जीवन का एक ये ही क्रम |
गीता पंडित
3 comments:
आपका चिंतन सोचने पर बाध्य करता है. नई पीढ़ी दुर्घटनाओं का शिकार हो कर असमय जान से हाथ धो रही है. यह दुखद है, लेकिन आजकल लड़कें मानते कहाँ हैं?बहरहाल आपकी कविता मार्मिक है. मेरे मन में भी दो पंक्तियाँ उभर गयीं, पेश है-
आना-जाना लगा रहेगा, यही रीत है जीवन की.
हम केवल दर्शक है इसके, नहीं पलते कोई भ्रम.
जी.... सहमत हूँ आपकी बात से सुंदर पंक्तियों के लियें आभार आपका पंकज सर ...
'निर्झर' मेरे भाई का बेटा था नौयडा बर्थडे पार्टी में जाते हुए जिंदल फेक्ट्री के पास टाटा सूमो की 'ट्रोला ' से भिडंत हो गयी और उसी समय वो काल का ग्रास बन गया ....:( और सभी छ मित्र सकुशल बच गये.... :) :) .....
अरे आगत 1
चलो ,
सुन लेता हूँ तुम्हारी ही ,
कि
विस्मृत कर दूँ विगत को ,
और होकर प्रकृतिस्थ
लपेट लूँ
मंद हवा का एक स्पर्श ,
झाँक लूँ
ओस-जल-बिन्दु के
निर्मल्य के आरपार ,
अथवा
सेंक लूँ ,
गुनगुनी धूप का
एक टुकड़ा उठाकर
अपनी तप्त पलकों को ,
या फिर,
धरा की अंकुरन करती
माटी की गंध
भर लूँ ,
अपनी शिराओं में ,
गगन में थिरकती प्राची ,
लजाती साँझ को
कर दूँ
समाहित
सोच के अबंध विस्तार में
क्योंकि
सच यह भी है
कि तुम
गए थे ही कहाँ
स्मृति के पंच-भूत से ?
Post a Comment