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चुप्पी साधे बैठी है वो
घाव कई तन पर दिखते,
फटी आँख से देख रही है
जाने क्या मन पर लिखते ,
झाडू कटका करती दिनभर
भरी दोपहरी तोड़े पत्थर,
पीकर रौंदे देह रात-भर
नयनों से अश्रु हैं झरझर ,
मन में सोच रही है जाने
ऐसे कैसे रीत रही |
ये कैसा पुरुषत्व है भद्दी
गाली सा लगता सिन्दूर
आज खड़ी है चौराहे पर
मन-मिट्टी का खोया नूर
आत्म कहाँ मर जाता है यों
पशुता को भी लांघ रहे
उसी कोख से पैदा होकर
उसी कोख को जांच रहे |
सिसक रही है काया उसकी
मन पर ये क्या बीत रही ||
गीता पंडित
1 comment:
''vo todati patthar'' ki yaad aa gai. badhai. is savedana k liye.
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