Friday, December 2, 2011

द्रवित हुआ जाता है मन .... गीता पंडित

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चुप्पी साधे बैठी है वो 
घाव कई तन पर दिखते,
फटी आँख से देख रही है 
जाने क्या मन पर लिखते ,
झाडू कटका करती दिनभर 
भरी दोपहरी तोड़े पत्थर, 
पीकर रौंदे देह रात-भर 
नयनों से अश्रु हैं झरझर ,
मन में सोच रही है जाने 
ऐसे कैसे रीत रही  |

ये कैसा पुरुषत्व है भद्दी
गाली सा लगता सिन्दूर 
आज खड़ी है चौराहे पर 
मन-मिट्टी का खोया नूर  
आत्म कहाँ मर जाता है यों 
पशुता को भी लांघ रहे 
उसी कोख से पैदा होकर 
उसी कोख को जांच रहे |
सिसक रही है काया उसकी  
मन पर ये क्या बीत रही ||

गीता पंडित 

1 comment:

girish pankaj said...

''vo todati patthar'' ki yaad aa gai. badhai. is savedana k liye.