Saturday, December 3, 2011

ओ मृत-प्राय पल ! ..... गीता पंडित

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मेरी बूढ़ी होती हुई इन अस्थियों को
अगर दे सकते हो तो दो 
वो आस्था, वो विश्वास, वो जिह्वाएँ 
जिनसे उड़ सकूं पहले जैसे
ढो सकूँ अपने अंतर में तुम्हें
सह सकूँ तुम्हारी निढाल देह
देख सकूँ तुम्हारी मृत्यु
अपने ही मन की शैय्या पर
शोक किये बिना ,
बिना किसी अवसाद के |

होना है तुम्हें फीनिक्स
ओ मृतप्राय पल !
जाओ और बनो मेरी मुक्ति के देवदूत
मुझे जन्म लेना है अभी तुम्हारी राख से |

नोचनी हैं भूतकाल से, वर्तमान से, आगत से
वो शंख-ध्वनियाँ
जो फूँक सकें 

फिर से पान्जन्य-शंख
मेरी शिराओं में दौड़ सकें 

रक्त के फव्वारे
मेरी रीढ़ में गढ़ सकें बाँस
ताकि सीधी होकर मेरी पीठ
देख सके तुम्हारी प्रश्न्चिन्हित आँखों को
दे सके तुम्हारे
हर उचित - अनुचित प्रश्न का उत्तर | |




.............गीता पंडित..................

3 comments:

अनुपमा पाठक said...

रीढ़ का सीधा होना... बेहद सुन्दर प्रतिमान! जीवन की दौड़ में किसी एक पल से की गयी यह वार्ता, पांचजन्य की ध्वनि सी इस निर्मल कविता के लिए बधाई!

MrYogi said...

Pal Do Pal Ka Saath Humaara, Pal Do Pal Ki Yaari
Aaj Nahi'n To Kal Karni Hai, Chalne Ki Taiyaari

MrYogi said...

Pal Do Pal Ka Saath Humaara, Pal Do Pal Ki Yaari
Aaj Nahi'n To Kal Karni Hai, Chalne Ki Taiyaari