Friday, December 30, 2011

बजी द्वार की साँकल ....... गीता पंडित

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बजी द्वार की साँकल फिर से
मन को कैसे धीर धराये |


आज रैन की इस बेला में  
बिन आहट के बादल छाये,
मन की कोपल फिर से भीगीं 
फिर कंपन के मादल भाये,


सुधि के  सिंधु नाव चले फिर 
फिर-फिर मन में पीर भराये |


मिलन  हमारा पलभर का था
जीवन भर की रही कमाई,
नेह - निधी ये कैसी जिससे 
अपने मन की हुई सगाई ,


आज झरोखे फिर से चौंके
खडा कौन जो नीर बहाये |
बजी द्वार की साँकल फिर से
मन को कैसे धीर धराये ||




गीता पंडित   
(मेरे आने वाले संग्रह से )         

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