Thursday, October 6, 2011

स्त्री ...गीता पंडित



स्त्री ____


बचपन से ही जान गयी थी
प्रेम था केवल सपना ,
मेरे मन का हिस्सा ही तो
था केवल मेरा अपना ,
लेकिन वो भी छूट रहा था
व्यथित हुई मैं उस पल तो,
फिर भी शेष कहीं पर रखा
मैंने अंतर के जल को ||


गीता पंडित

9 comments:

vandana gupta said...

वाह बहुत सुन्दरता से स्त्री मन को परिभाषित किया है।

गीता पंडित said...

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Kamdev Sharma
bahut hi sunder aur nirmal vichar hain aapke gita ji thnx

गीता पंडित said...

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राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'
एक सुन्दर और शांतिपूर्ण रचना

गीता पंडित said...

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Prabhat Pandey

फिर भी शेष कहीं ..... यही तो जो बार-बार .....

गीता पंडित said...

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‎"भूल रही हूँ हुआ जो कल ,
कल से अँखियाँ मींच रही हूँ
आज उसी से देखो जग के
बाग बगीचे सींच रही हूँ ||"
....गीता पं.

गीता पंडित said...

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Dhananjay Singh

जानता हूं कि गैर हैं सपने और खुशियां सभी अधूरी हैं/किंतु जीवन गुज़ारने के लिए, कुछ गलतफहमियां जरूरी हैं!......(बालस्वरूप राही).

गीता पंडित said...

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चेतन रामकिशन

स्त्री की दशा,
पीड़ा,
भाव,
उसकी सोच,
संवेदना,
व्यव्हार और उसका पुरुष के प्रति त्याग, समर्पण और बलिदान सब कुछ चित्रण आपकी रचनाओं में मिलता है! आपका लेखन हम जैसे नवोदितों के लिए बेहद प्रेरणाप्रद और दिशा निर्देशन करने वाला है!

गीता पंडित said...

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मिथिलेश व्दिवेदी अन्ना ‎
"फिर भी शेष कहीं पर रखा मैंने अंतर के जल को" अंतर मन को छूती हुई पंक्ति. अपने आप में सम्पूर्ण कविता है यह पंक्ति.

गीता पंडित said...

आहारी हूँ
आप सभी मित्रों के स्नेह के लियें..

मंगलकामनाएं..