......
......
उमङ-घुमङ कर नभ-अन्तर में,
यादों की घन - घोर घटाएं.,
कौंध-कौंध बिजली सी आयें.,
भिगो-भिगो मन को सरसायें,
कभी हँसाएं, कभी रुलाएं..,
जीवन में रस बरसा जायें..,
जब तुम थे तब जान ना पायी,
अब जाना जब हुई परायी..,.,
बीते पलों का नेह-नीर भर..,,
सुधि गागर छल छलकी जाती,
याद तुम्हारी बरबस आकर..,,
मन में एक तरिणी बन जाती,
प्रीत पगी सी पहली लोरी...,
कब तुमने कानों में भर दी..,
अपने अंतस से गुन-गुन कर,
कब शब्दों की प्राची वर दी..,
छंद-बद्ध कर संस्कारों की..,
कब सुंदर सी कविता रच दी,
अन-जाने अंवगुँठित नेह की.,
इंद्र-धनुषी साङी लपेट दी...,
पंख देकर सुंदर पाखी के...,
नभ की मुझे कमान सौँप दी.
पर जीवन की धूँप-छाँव में.,
याद तुम्हारी,निर्झर झरती..,
अन-कहे, अचीन्हे शब्दों के..,
सार आज आते से दिखते..,
काल-ग्रही जो हो गये सपने.,
फिर रंगोली के रंग में सजते,
तुम्हारे आशीर्वचन देखो तो..,
लेखनी से कविता में ढलते..,
मरुथल में भी बरखा लाये..,
भिगो-भिगो मन को सरसायें,
कभी हँसाएं, कभी रुलाएं..,
जीवन में रस बरसा जायें..,
गीता पण्डित
भाव तुम्हारे तुम्हें समर्पित, अंतर्मन के धारे हैं, गीतों में भरकर जो आये मन के वेद उचारे हैं||
Thursday, July 5, 2007
बहार की पहली फुहार.....
......
......
नव-किसलय जब मुसका कर,
तरूवर की काया पर डोलें..,
शिशु का कोमल स्पर्श परस,
नभ को तरूवर भी छू लें..,
कली-फूल सिर हिला-हिला..,
हँस-हँसकर जब पास बुलाएं.,
उमड-घुमड-कर बादल भी..,
धरती से प्रेम-आलाप करे..,
कोयल डाली पर अम्बुवा की ,
जब मीठे सुर में गुंजार करे..
हुलस-हुलस कर मनवा भी ,
मन का सोलह-श्रंगार करे..,
तब बहार की पहली फुहार..,
ले आये तुम्हारी सुधियों को ,
रजनी-गंधा सी महक-महक,
सुरभित करती तन-मन को,
तब चुपके से प्रीत कुंवारी..,
मोती बन पलकों पर सजती,
टीस हृदय में उठती गहरी..,
अन्तर्मन में जाकर रिसती..,
गीता पण्डित
Monday, June 4, 2007
आरज़ू ....
.....
.....
नहीं जानती मैं ,
जानना भी नहीं चाहती
नहीं समझती मैं ,
समझना भी नहीं चाहती,
रहने दो बंद सभी
खिङकी-दरवाजे,
छुपा रहने दो यूँ ही,
बिना रोशनदान के,
दरो-दीवारों में,
जानती हूं मैं ,
भटक रही है आत्मा,
आरज़ू की यहीँ-कहीँ,
ढूंढ रही है मुझे,
फिर से अपने चंगुल में,
दबोचने के लियें,
लेकिन अब मैं,
तैय्यार नहीं.
गीता (शमा)
.....
नहीं जानती मैं ,
जानना भी नहीं चाहती
नहीं समझती मैं ,
समझना भी नहीं चाहती,
रहने दो बंद सभी
खिङकी-दरवाजे,
छुपा रहने दो यूँ ही,
बिना रोशनदान के,
दरो-दीवारों में,
जानती हूं मैं ,
भटक रही है आत्मा,
आरज़ू की यहीँ-कहीँ,
ढूंढ रही है मुझे,
फिर से अपने चंगुल में,
दबोचने के लियें,
लेकिन अब मैं,
तैय्यार नहीं.
गीता (शमा)
Sunday, June 3, 2007
कोई मीत नहीं..,
.....
.....
कोई मीत नहीं..,
कोई गीत नहीं..,
एक उम्र रो गई.,
चुप-चाप सो गई,
कांधा कोई नहीं..,
कोई कफ़न नहीं.,
दो गज ज़मीं नहीं,
आँसू की लङी नहीं,
जन्मों से मुक्त हुई,
"ओम" में लुप्त हुई,
सब कुछ है वही,
बस मैं नहीं रही,
गीता (शमा)
.....
कोई मीत नहीं..,
कोई गीत नहीं..,
एक उम्र रो गई.,
चुप-चाप सो गई,
कांधा कोई नहीं..,
कोई कफ़न नहीं.,
दो गज ज़मीं नहीं,
आँसू की लङी नहीं,
जन्मों से मुक्त हुई,
"ओम" में लुप्त हुई,
सब कुछ है वही,
बस मैं नहीं रही,
गीता (शमा)
Monday, May 7, 2007
प्रिय ! तुमको मैं क्या बतलाऊँ
............
............
प्रिय ! तुमको मैं क्या बतलाऊँ
मन अबोध शिशु सा मेरा,
हठ बार-बार मुझसे करता,
बैठ अकेला एक कौने में,
चाह तुमहारी पल-पल करता,
प्रिये उसको कैसे समझाऊँ..?
प्रिय तुमको मैं क्या बतलाऊँ.?
मन वीणा के तार हैं टूटे,
भाव सभी हैं रूठे-रूठे..,
गीत मैं कैसे बनाऊँ ? ?
सुर भी हैं सब छूटे-छूटे..,
प्रिये! कैसे तुमको मैं गाऊँ ?
प्रिय तुमको मैं क्या बतलाऊँ ?
शब्द सभी अर्थ-हीन हो गये,
भाब सभी व्यर्थ खो गये.,
कैसे सोचूँ ? क्या सोचूँ मैं ?
तमस गहम गहराता जाये..,
प्रिये! उनको मैं कैसे खोजूँ,?
प्रिय! तुमको मैं क्या बतलाऊँ ?
तपन प्रीत की सूखी माटी,
कीकर-काँटे,चुभन ही सारी,
भीतर है अब पीडा भारी.,
सूखी नेह-सरिता भी सारी.,
प्रिये! कैसे इसको सरसाऊँ ?
प्रिय! तुमको मैं क्या बतलाऊँ ?
प्रिये! कैसे तुमको मैं गाऊँ ? ? ?
गीता (शमा)
............
प्रिय ! तुमको मैं क्या बतलाऊँ
मन अबोध शिशु सा मेरा,
हठ बार-बार मुझसे करता,
बैठ अकेला एक कौने में,
चाह तुमहारी पल-पल करता,
प्रिये उसको कैसे समझाऊँ..?
प्रिय तुमको मैं क्या बतलाऊँ.?
मन वीणा के तार हैं टूटे,
भाव सभी हैं रूठे-रूठे..,
गीत मैं कैसे बनाऊँ ? ?
सुर भी हैं सब छूटे-छूटे..,
प्रिये! कैसे तुमको मैं गाऊँ ?
प्रिय तुमको मैं क्या बतलाऊँ ?
शब्द सभी अर्थ-हीन हो गये,
भाब सभी व्यर्थ खो गये.,
कैसे सोचूँ ? क्या सोचूँ मैं ?
तमस गहम गहराता जाये..,
प्रिये! उनको मैं कैसे खोजूँ,?
प्रिय! तुमको मैं क्या बतलाऊँ ?
तपन प्रीत की सूखी माटी,
कीकर-काँटे,चुभन ही सारी,
भीतर है अब पीडा भारी.,
सूखी नेह-सरिता भी सारी.,
प्रिये! कैसे इसको सरसाऊँ ?
प्रिय! तुमको मैं क्या बतलाऊँ ?
प्रिये! कैसे तुमको मैं गाऊँ ? ? ?
गीता (शमा)
सूर्योदय...
.......
.......
निशा को कर विदा हँसकर...,
रश्मि रथ पर निकला दिनकर.,
स्वर्णिम आभा सुन्दर अम्बर..,
कर्णा-भिराम विहग कलरव...,
पल्लव पर मोती ओस के कण,
मन को मोहते सुगन्धित सुमन,
भीनी-भीनी बासन्ती बयार...,
कान्धे पर गोरी के जल गागर.,
भारी बस्ते, बोझिल बचपन..,
अन्गडाई लेता चन्चल यौवन..,
माथे पर सिन्दूरी टीका.....,,
प्यारा आन्गन, प्यारा साजन..
आचमन करता कोई तन.....,
पूजा मेँ मग्न कोई मन......,
तुलसी को देता कोई जल ....,
मन्दिर की घन्ट ध्वनि घन-घन.
शमा (गीता)
.......
निशा को कर विदा हँसकर...,
रश्मि रथ पर निकला दिनकर.,
स्वर्णिम आभा सुन्दर अम्बर..,
कर्णा-भिराम विहग कलरव...,
पल्लव पर मोती ओस के कण,
मन को मोहते सुगन्धित सुमन,
भीनी-भीनी बासन्ती बयार...,
कान्धे पर गोरी के जल गागर.,
भारी बस्ते, बोझिल बचपन..,
अन्गडाई लेता चन्चल यौवन..,
माथे पर सिन्दूरी टीका.....,,
प्यारा आन्गन, प्यारा साजन..
आचमन करता कोई तन.....,
पूजा मेँ मग्न कोई मन......,
तुलसी को देता कोई जल ....,
मन्दिर की घन्ट ध्वनि घन-घन.
शमा (गीता)
मंजिल....
......
.......
तुमने ये सब क्या कहा.
मुझसे सुना जाता नहीं,
आँख मैं आते हैं आँसू,
कुछ नजर आता नहीं.
तेरे सजदे मैं पङी हैं..,
आरज़ू मेरी सभी.....
जिनको एक-एक कर चुना था,
तेरे लियें मैने कभी.........
अब तो मुझसे आईना भी
हो गया है अजनबी.....
पूँछता है मुझसे वो.......,
तू कहाँ पर खो गई,........
आज भी मेरी समझ मैं
बात ये आई नहीं.........
क्या ?और कैसी थी मैं,
आज क्या मैं हो गई.......
कह-कशों की भीङ थी.,
सपनों की बारिश थी कभी,
आज फ़िर ये हाल क्यूँ.....,
नीँद भी आती नहीं........
ए - शमा - तू ही बता...,
मंजिल कहाँ पर है मेरी.....
ढूँढती है रूह भी.....,
बरसों से है सोई कहीँ.......
शमा (गीता)
.......
तुमने ये सब क्या कहा.
मुझसे सुना जाता नहीं,
आँख मैं आते हैं आँसू,
कुछ नजर आता नहीं.
तेरे सजदे मैं पङी हैं..,
आरज़ू मेरी सभी.....
जिनको एक-एक कर चुना था,
तेरे लियें मैने कभी.........
अब तो मुझसे आईना भी
हो गया है अजनबी.....
पूँछता है मुझसे वो.......,
तू कहाँ पर खो गई,........
आज भी मेरी समझ मैं
बात ये आई नहीं.........
क्या ?और कैसी थी मैं,
आज क्या मैं हो गई.......
कह-कशों की भीङ थी.,
सपनों की बारिश थी कभी,
आज फ़िर ये हाल क्यूँ.....,
नीँद भी आती नहीं........
ए - शमा - तू ही बता...,
मंजिल कहाँ पर है मेरी.....
ढूँढती है रूह भी.....,
बरसों से है सोई कहीँ.......
शमा (गीता)
Thursday, April 19, 2007
मैं क्यूँ बोलूँ
.
........
मैं क्या बोलूं, मैं क्यूँ बोलूं.?
ग्रन्थी मन की मैं क्यूँ खोलूँ ?
किसने किसको कितना माना,
किसने किसको कितना जाना,
ये सब व्यर्थ की बातें हैं,
मन की बस सारी साधें हैं.
हँसना रोना,रोना-हँसना,
सुख-दुख का चलना फिरना,
रितु की गति बताती हैं,
जीवन को खेल दिखाती हैं,
धीरे से पास मेरे आकर,
चुपके से कुcछ कह जाती हैं,
ये सब व्यर्थ की बातें हैं,
मन की बस सारी साधें हैं.
सोचूं स्वयम के बारे मै,
जानूं स्वयम के बारे मैं,
साधूं खुद को,बाँधूं खुद को,
क्यूँ सोचूं नियति के बारे मैं,
जो लिखा भाग्य मैं मेरे है,
उसका मिलना तो निश्चित है,
जो मिला उसको अमय सा पी लूं,
जो मिला नहीं ,गरल सा छोङूं
ये सब व्यर्थ की बातें हैं...,
मन की बस सारी साधें हैं...
ये सब परिभाषाएं जीवन की हैं,
जीने के सुंदर दंग की है
जग एक बुदबुदा पानी का,
बनता-मिटता,मिटकर बनता,
कैसे उसको पकङूं मैं,
कैसे कर्मों से जकङूं मैं,
ये सब व्यर्थ की बातें हैं,
मन की बस सारी साधें हैं.
तेरा-मेरा,इसका-उसका,
जग मैं केवल एक सपना,
क्या लायी थी,क्या ले जाना,
मन क्यूँ इनमें भरमाना,
कोई तो ऐसा काम करूं,
मरकर भी जो जीवन पाऊँ,
ये सब व्यर्थ की बातें हैं,
मन की बस सारी साधें हैं.
.
किसने किसको कितना माना,
किसने किसको कितना जाना,
ये सब व्यर्थ की बातें हैं,
मन की बस सारी साधें हैं.
मैं क्या बोलूं,मैं क्यूँ बोलूं
ग्रन्थी मन की मैं क्यूँ खोलूँ
गीता (शमा)
........
मैं क्या बोलूं, मैं क्यूँ बोलूं.?
ग्रन्थी मन की मैं क्यूँ खोलूँ ?
किसने किसको कितना माना,
किसने किसको कितना जाना,
ये सब व्यर्थ की बातें हैं,
मन की बस सारी साधें हैं.
हँसना रोना,रोना-हँसना,
सुख-दुख का चलना फिरना,
रितु की गति बताती हैं,
जीवन को खेल दिखाती हैं,
धीरे से पास मेरे आकर,
चुपके से कुcछ कह जाती हैं,
ये सब व्यर्थ की बातें हैं,
मन की बस सारी साधें हैं.
सोचूं स्वयम के बारे मै,
जानूं स्वयम के बारे मैं,
साधूं खुद को,बाँधूं खुद को,
क्यूँ सोचूं नियति के बारे मैं,
जो लिखा भाग्य मैं मेरे है,
उसका मिलना तो निश्चित है,
जो मिला उसको अमय सा पी लूं,
जो मिला नहीं ,गरल सा छोङूं
ये सब व्यर्थ की बातें हैं...,
मन की बस सारी साधें हैं...
ये सब परिभाषाएं जीवन की हैं,
जीने के सुंदर दंग की है
जग एक बुदबुदा पानी का,
बनता-मिटता,मिटकर बनता,
कैसे उसको पकङूं मैं,
कैसे कर्मों से जकङूं मैं,
ये सब व्यर्थ की बातें हैं,
मन की बस सारी साधें हैं.
तेरा-मेरा,इसका-उसका,
जग मैं केवल एक सपना,
क्या लायी थी,क्या ले जाना,
मन क्यूँ इनमें भरमाना,
कोई तो ऐसा काम करूं,
मरकर भी जो जीवन पाऊँ,
ये सब व्यर्थ की बातें हैं,
मन की बस सारी साधें हैं.
.
किसने किसको कितना माना,
किसने किसको कितना जाना,
ये सब व्यर्थ की बातें हैं,
मन की बस सारी साधें हैं.
मैं क्या बोलूं,मैं क्यूँ बोलूं
ग्रन्थी मन की मैं क्यूँ खोलूँ
गीता (शमा)
Tuesday, April 17, 2007
..बिन तेर..
.......
.......
बिन तेरे कुछ भी नहीं, ,
कुछ भी नहीं
कुछ भी नहीं
मैं तेरे ही गीत गाती,
तुझको ही मैं गुनगुनाती,
बांसुरी तेरी बनाकर....
अधरों पे तुझको सजाती..
मैं बजाती......
मैं सजाती..
मैं सजाती..
बिन तेरे ना चैन पाती
बिन तेरे कुछ भी नहीं
कुछ भी नहीं
कुछ भी नहीं
तुम मेरी स्वाती सी बूंदें
जिसको ले मैं त्रिप्त होती,
तुम अमय हो उस मंथन का..
जिसको पी मैं अमर होती..
अमर होती,
अमर होती,
बिन तेरे ना चैन पाती..
बिन तेरे कुछ भी नहीं
कुछ भी नहीं
कुछ भी नहीं
तुम हो सुर सांसों क मेरे,
तेरे बिन वो रुक ही जातीं
मैं धरा तुम नभ हो मेरे,
देख जिसको मैं लजाती..,.
मैं लजाती,
मैं लजाती,
बिन तेरे ना चैन पाती,
तुझको ही बस गुन-गुनाती,
तुझको ही केवल बुलाती..,
तुझको ओठों पे सजाती......
बिन तेरे कुछ भी नहीं
कुछ भी नहीं
कुछ भी नहीं
शमा (गीता)
.......
बिन तेरे कुछ भी नहीं, ,
कुछ भी नहीं
कुछ भी नहीं
मैं तेरे ही गीत गाती,
तुझको ही मैं गुनगुनाती,
बांसुरी तेरी बनाकर....
अधरों पे तुझको सजाती..
मैं बजाती......
मैं सजाती..
मैं सजाती..
बिन तेरे ना चैन पाती
बिन तेरे कुछ भी नहीं
कुछ भी नहीं
कुछ भी नहीं
तुम मेरी स्वाती सी बूंदें
जिसको ले मैं त्रिप्त होती,
तुम अमय हो उस मंथन का..
जिसको पी मैं अमर होती..
अमर होती,
अमर होती,
बिन तेरे ना चैन पाती..
बिन तेरे कुछ भी नहीं
कुछ भी नहीं
कुछ भी नहीं
तुम हो सुर सांसों क मेरे,
तेरे बिन वो रुक ही जातीं
मैं धरा तुम नभ हो मेरे,
देख जिसको मैं लजाती..,.
मैं लजाती,
मैं लजाती,
बिन तेरे ना चैन पाती,
तुझको ही बस गुन-गुनाती,
तुझको ही केवल बुलाती..,
तुझको ओठों पे सजाती......
बिन तेरे कुछ भी नहीं
कुछ भी नहीं
कुछ भी नहीं
शमा (गीता)
..शमा और शलभ..
........
........
दर्द क़ो... मैने जिया है.,
दर्द को ... मैने सिला है,
तुम शलभ क्यूं आह भरते,
दर्द…..मैंने भी सहा है.....
रोज़ जलती..उफ़् किये बिन,
मौत की..परवाह किये बिन,
रोज़ जीती……रोज़ मरती…..,
राह तेरी…रोज़ तकती…....,
मैं अधूरी हूँ... तेरे बिन..,
मैं जलूँ ...कैसे तेरे बिन.,
आ…तू मुझको साथ ले फ़िर,
हँसकर प्राण करें विसर्जित..,
साथ तेरा ..कुछ पलों का..,
फ़िर से मिलना फ़िर बिछड़ना,
दर्द में...... डूबी है जाँ पर,
अथक चलती…..रोज़ जलती…
तू मत तड़प, सुन बात मेरी,
रोशन करें .....रातें अंधेरी,
साथ होंगे…...रात भर फ़िर.,
बिछड़ने की क्या बात करनी.,
साथ होंगे..…रात भर फ़िर..,
बिछड़ने की क्या बात करनी..
शमा (गीता)
........
दर्द क़ो... मैने जिया है.,
दर्द को ... मैने सिला है,
तुम शलभ क्यूं आह भरते,
दर्द…..मैंने भी सहा है.....
रोज़ जलती..उफ़् किये बिन,
मौत की..परवाह किये बिन,
रोज़ जीती……रोज़ मरती…..,
राह तेरी…रोज़ तकती…....,
मैं अधूरी हूँ... तेरे बिन..,
मैं जलूँ ...कैसे तेरे बिन.,
आ…तू मुझको साथ ले फ़िर,
हँसकर प्राण करें विसर्जित..,
साथ तेरा ..कुछ पलों का..,
फ़िर से मिलना फ़िर बिछड़ना,
दर्द में...... डूबी है जाँ पर,
अथक चलती…..रोज़ जलती…
तू मत तड़प, सुन बात मेरी,
रोशन करें .....रातें अंधेरी,
साथ होंगे…...रात भर फ़िर.,
बिछड़ने की क्या बात करनी.,
साथ होंगे..…रात भर फ़िर..,
बिछड़ने की क्या बात करनी..
शमा (गीता)
..आदमी..
.......
.......
पेट की इस भूख ने,
कैसा बनाया आदमी,,
भूल जाता है,तुझे..,
हर रोज़ मरता आदमी…..
जानता है वो,तुझे.,
पहचानता भी है,मगर,
ज़िन्दगी की दौड ने….,
कैसा फ़ँसाया आदमी…...
रीतियों को मान दें..,
कुरीति का दावा हो क्यूं ?
ज़िन्दगी के जाल मैं…. ,
कैसा है जकडा आदमी…...
हर-तरफ़ तेरा है जलवा,
हर तरफ़ तेरा वज़ूद्…
जग की आपा-धापी ने.,
अन्धा बनाया आदमी….....
पेट की इस भूख ने,
कैसा बनाया आदमी,,
भूल जाता है तुझे..,
हर रोज़ मरता आदमी…..
शमा (गीता)
.......
पेट की इस भूख ने,
कैसा बनाया आदमी,,
भूल जाता है,तुझे..,
हर रोज़ मरता आदमी…..
जानता है वो,तुझे.,
पहचानता भी है,मगर,
ज़िन्दगी की दौड ने….,
कैसा फ़ँसाया आदमी…...
रीतियों को मान दें..,
कुरीति का दावा हो क्यूं ?
ज़िन्दगी के जाल मैं…. ,
कैसा है जकडा आदमी…...
हर-तरफ़ तेरा है जलवा,
हर तरफ़ तेरा वज़ूद्…
जग की आपा-धापी ने.,
अन्धा बनाया आदमी….....
पेट की इस भूख ने,
कैसा बनाया आदमी,,
भूल जाता है तुझे..,
हर रोज़ मरता आदमी…..
शमा (गीता)
Monday, April 16, 2007
मन पखेरू उड चला ....
.....
जाने कहाँ
.....
मन पखेरू उड़ चला..
जाने किधर...जाने कहाँ..,
व्यथित मन..,
चिंतित चितवन..,
करते अनावरत मन-मंथन..
मन पखेरू उड़ चला
जाने किधर....जाने कहाँ...,
अनुत्तरित प्रश्न..
करते विह्वल.....
होता आर्द्र...अंतःस्थल.......
मन पखेरू उड़ चला...
जाने किधर..जाने कहाँ, .
कोमल मन..,
आभामय तन...,
निर्मित करता अनगिनत सपन..
मन पखेरू उड़ चला
जाने किधर...जाने कहाँ,
चित की अगन..,
हो कर मग्न.....,
नृत्य करती नित-नूतन..
मन पखेरू उड़ चला..,
जाने किधर...जाने कहाँ,
अश्रु कण...,
बन के घन....,
बरसें निरन्तर हो सघन..
मन पखेरू उड़ चला...,
जाने किधर...जाने कहाँ,
गीता (शमा)
.....
जाने कहाँ
.....
मन पखेरू उड़ चला..
जाने किधर...जाने कहाँ..,
व्यथित मन..,
चिंतित चितवन..,
करते अनावरत मन-मंथन..
मन पखेरू उड़ चला
जाने किधर....जाने कहाँ...,
अनुत्तरित प्रश्न..
करते विह्वल.....
होता आर्द्र...अंतःस्थल.......
मन पखेरू उड़ चला...
जाने किधर..जाने कहाँ, .
कोमल मन..,
आभामय तन...,
निर्मित करता अनगिनत सपन..
मन पखेरू उड़ चला
जाने किधर...जाने कहाँ,
चित की अगन..,
हो कर मग्न.....,
नृत्य करती नित-नूतन..
मन पखेरू उड़ चला..,
जाने किधर...जाने कहाँ,
अश्रु कण...,
बन के घन....,
बरसें निरन्तर हो सघन..
मन पखेरू उड़ चला...,
जाने किधर...जाने कहाँ,
गीता (शमा)
Subscribe to:
Posts (Atom)