Monday, May 7, 2007

प्रिय ! तुमको मैं क्या बतलाऊँ

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प्रिय ! तुमको मैं क्या बतलाऊँ

मन अबोध शिशु सा मेरा,
हठ बार-बार मुझसे करता,
बैठ अकेला एक कौने में,
चाह तुमहारी पल-पल करता,
प्रिये उसको कैसे समझाऊँ..?
प्रिय तुमको मैं क्या बतलाऊँ.?

मन वीणा के तार हैं टूटे,
भाव सभी हैं रूठे-रूठे..,
गीत मैं कैसे बनाऊँ ? ?
सुर भी हैं सब छूटे-छूटे..,
प्रिये! कैसे तुमको मैं गाऊँ ?
प्रिय तुमको मैं क्या बतलाऊँ ?

शब्द सभी अर्थ-हीन हो गये,
भाब सभी व्यर्थ खो गये.,
कैसे सोचूँ ? क्या सोचूँ मैं ?
तमस गहम गहराता जाये..,
प्रिये! उनको मैं कैसे खोजूँ,?
प्रिय! तुमको मैं क्या बतलाऊँ ?

तपन प्रीत की सूखी माटी,
कीकर-काँटे,चुभन ही सारी,
भीतर है अब पीडा भारी.,
सूखी नेह-सरिता भी सारी.,
प्रिये! कैसे इसको सरसाऊँ ?

प्रिय! तुमको मैं क्या बतलाऊँ ?
प्रिये! कैसे तुमको मैं गाऊँ ? ? ?

गीता (शमा)

1 comment:

Gaurav Shukla said...

"प्रिय ! तुमको मैं क्या बतलाऊँ"
"प्रिये! उनको मैं कैसे खोजूँ,?
प्रिय! तुमको मैं क्या बतलाऊँ ?"

इतनी वेदना?

हृदय के तार झनझना उठे
अनुपम रचना
हार्दिक बधाई

सस्नेह
गौरव शुक्ल