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नहीं जानती मैं ,
जानना भी नहीं चाहती
नहीं समझती मैं ,
समझना भी नहीं चाहती,
रहने दो बंद सभी
खिङकी-दरवाजे,
छुपा रहने दो यूँ ही,
बिना रोशनदान के,
दरो-दीवारों में,
जानती हूं मैं ,
भटक रही है आत्मा,
आरज़ू की यहीँ-कहीँ,
ढूंढ रही है मुझे,
फिर से अपने चंगुल में,
दबोचने के लियें,
लेकिन अब मैं,
तैय्यार नहीं.
गीता (शमा)
1 comment:
"जानती हूं मैं ,
भटक रही है आत्मा,
आरज़ू की यहीँ-कहीँ,
ढूंढ रही है मुझे,
फिर से अपने चंगुल में,
दबोचने के लियें,"
"लेकिन अब मैं,
तैय्यार नहीं."
बहुत सुन्दर
किसी खण्डकाव्य के जैसा समापन किया है आपने कविता का
अद्भुत भाव हैं गीता जी
बधाई
सस्नेह
गौरव शुक्ल
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