Friday, December 30, 2011

बजी द्वार की साँकल ....... गीता पंडित

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बजी द्वार की साँकल फिर से
मन को कैसे धीर धराये |


आज रैन की इस बेला में  
बिन आहट के बादल छाये,
मन की कोपल फिर से भीगीं 
फिर कंपन के मादल भाये,


सुधि के  सिंधु नाव चले फिर 
फिर-फिर मन में पीर भराये |


मिलन  हमारा पलभर का था
जीवन भर की रही कमाई,
नेह - निधी ये कैसी जिससे 
अपने मन की हुई सगाई ,


आज झरोखे फिर से चौंके
खडा कौन जो नीर बहाये |
बजी द्वार की साँकल फिर से
मन को कैसे धीर धराये ||




गीता पंडित   
(मेरे आने वाले संग्रह से )         

Tuesday, December 27, 2011

मेरी लेखनी से .... .दिसंबर के फेसबुक पर स्टेटस......गीता पंडित

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ज़िन्दगी ___

आपकी पायल के घुँघरू सुन ना पाये हम कभी 

है प्रतीक्षा मेरे घर पर तुम कभी तो आओगी 

झीनी सी इस चूनरी को, है सम्भाला यत्न से 

एक दिन मैं कहती तुमसे साथ तुम भी गाओगी ..
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उम्रभर लिखता रहा जो खत वो वापस आ गये 

ज़िंदगी ! तेरा पता बदला था कब अनजान हूँ 

मैं यही था मैं यहीं हूँ, पर ना जाने क्या हुआ 

जिंदगी ! तेरे ही घर में, आज मैं महमान हूँ | 

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जीवन क़ागज़ की एक पुड़िया


उस पुड़िया में प्रेम भरे कण 


वही हरेक जन को मिल जायें 


बोल और क्या चाहे रे मन ! ..
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ओस की बूँदें पड़ीं जो धरती के तपते तवे पर 


धूआँ ऐसा फैला देखो, हर दिशा कुहरा गयी ....
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कभी-कभी पीड़ा की पायल ऐसे सुर में बज उठती है


सारे स्वर मध्यम हो जाते एक अकेला स्वर है भाता 


मीरा के एकतारे पर तब गुनगुन करके मनवा गाता


कौन सुनहरी चादर ओढ़े मन को आकर है सहलाता ...


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"रख देना दो शब्द अगर अधर मूक हो जाएँ तो, 


हर मन के द्वारे जाकर सुमन एक तो रख देना "
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आ अधरों के नाम हँसी की, एक वसीयत कर जाएँ,


अगले पल का नहीं पता है जाने क्या गुल खिल जाएँ |
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अंगडाई लेती भोर 

हौले से निकालती है 

अपने पर्स से 

किरणों से बना टेडी बीयर

और रख आती है सुबह के द्वार पर

तमस भरा आकाश

खिलखिला पड़ता है

स्वप्निल हो आती हैं अवनि की पलकें

जग के आँगन में बज उठते हैं जल तरंग

नया उल्लास,

नयी उमंग हिलोरें लेती है

और आशा की सुकुमारी

सात घोड़ों पर सवार हो

निकल पड़ती हैं दिग - दिगंत के भ्रमण पर ...

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सर्दी का मारा है सूरज 

कम्बल ओढ़े पड़ा हुआ है

ऊषा रानी इसीलियें तो

कोटर में अपने चुप हैं ..
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लीप पोतकर आँगन देखो 

द्वारे पर रखी ढिबरी है

पथ ना बिसरा जाये मीत !.

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घुटी - घुटी सी श्वासों मे आस किरण है शेष अभी 

उठ चलना चल मीलों है थक ना जाना देख अभी .

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सुबह के आँगन में किरणों की अगवानी करता मन,


पवन झुलाये झूले जिनको ऐसे हर्षित हों तन - मन .
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पत्ता टूट गया टहनी से, तरुवर की आँखें हैं नम 


फिर से जीवन दोहराएगा जीवन का एक ये ही क्रम ..
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पवन तुम्हारी बातें बोले 


दिनकर अंखियाँ तुमसे खोले 


तुमसे ही तो मेरे मन की 


मैना मेरे अंतर्मन डोले 


आज उडूं मैं चिडिया बनकर 


तुम भी मेरे साथ में आओ

हौले-हौले मन सितार पर

प्रेम भरी एक सरगम गाओ 
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नेह नयन में मूक रहे क्यूँ 


प्यास ये कैसी है ..
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गीता पंडित .



















Thursday, December 22, 2011

धूप को आना है आये .... गीता पंडित

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हर सुबह 
लेकर जो आये
भोर की पहली किरण,

जाग उठें 
फिर से मन के,
खोये हुए सारे सपन,

आस्था 
और नेह की 
बाती जले जलती रहे,

और थोड़ी 
सी महक दे
जाये बासंती - पवन,



धूप को 
आना है आये
तुम उसे ना रोकना,

छाँव बन 
कर विटप की मन,
अपने ऊपर ओढना,

हाँ थकाने 
आयेंगे पल
अंक में भरकर हिमालय,

स्वेद-कण 
मोती की तरह 
हौले - हौले पोँछना,



ऐसे सौरभ 
की घड़ी फिर
से ना आये क्या पता,

आज है जो 
गीत सरिता
कल भी होगी क्या पता,

बाँध लो 
मन इन पलों को,
आज छंदों के वसन में,

और 
उतारो गीत में तुम 
प्रेम का पूरा पता ||


 गीता पंडित

(मेरे काव्य संग्रह से )  

Sunday, December 4, 2011

एक अभूली कहानी " निर्झर " जो श्वासों का गीत बन गयी ....... गीता पंडित



अंखियाँ बैठी हुई द्वार पर मन किसको यूँ आज पुकारे,  
रेत सरीखा जीवन कैसा पल पल मन के नयन निहारे ...... ...


कभी-कभी श्वास लेना भी इतना दूभर क्यूँ हो जाता है प्रश्न केवल प्रश्न जो हमेशा
अनुत्तरित रहते हैं जीवन केवल एक पहेली बनकर आपके सामने रहता है चाहकर
भी, जीवनभर सुलझाते सुलझाते ताना-बाना उलझता जाता है जीवन का सौंदर्य,
जीवन की वो प्यास, वो ललक कहाँ गायब हो जाती है ... 


किससे पूछें....?



आज का ही दिन 4 दिसंबर ____ रोड एक्सीडेंट और ___ 20  वर्ष का प्यारा सुमन
जिसे नेह से " निर्झर ' कहते थे टहनी से बिछड़ गया |
टहनी तो टूटी ही, डाली-डाली बिलख पड़ी, बरगद की पीठ झुक गयी | आह !!!!!!!!!!!!!



" मौन पलों का स्पंदन " मेरे गीत नवगीत संग्रह से एक कविता आज उस जैसे
हर सुमन के , हर टहनी के , हर डाली के और हर बरगद के नाम _____ 



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तुम थे तो दो चार बात मैं
तुमसे कर लेती थी लेकिन 
आज तुम्हारे बिन किससे मैं मन की बात कहूंगी बोलो |

सूना द्वारा राह निहारे 
ड्योढ़ी नयनन नीर बहाये
भरे अंजुरी सारी बातें
प्राचीरों पर लिख-लिख आये 

अँखियों के पथ धुंधला आये,  कैसे तुम्हें पढूंगी बोलो |

गंध रची वो ही मन-आँगन 
वो ही रंग रचे मन फागन 
पागल होकर राह तकें जो
कहाँ गये मन के वृन्दावन 

एकाकी सूने पल - पल में,  कैसे तुम्हें गठूंगी बोलो |

जन्म-मरण का खेल पुराना 
माटी का तन मान रही हूँ 
गीता का संदेश भी मन से 
मन के अंदर जान रही हूँ 

फिर भी तुम बिन बेकल अंतर,  कैसे धीर धरूंगी बोलो |
आज तुम्हारे बिन किससे मैं मन की बात कहूंगी बोलो ||
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" निर्झर की याद में "



" पत्ता टूट गया टहनी से, तरुवर की आँखें हैं नम 
फिर से जीवन दोहराएगा जीवन का एक ये ही क्रम |



गीता पंडित 

Saturday, December 3, 2011

ओ मृत-प्राय पल ! ..... गीता पंडित

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मेरी बूढ़ी होती हुई इन अस्थियों को
अगर दे सकते हो तो दो 
वो आस्था, वो विश्वास, वो जिह्वाएँ 
जिनसे उड़ सकूं पहले जैसे
ढो सकूँ अपने अंतर में तुम्हें
सह सकूँ तुम्हारी निढाल देह
देख सकूँ तुम्हारी मृत्यु
अपने ही मन की शैय्या पर
शोक किये बिना ,
बिना किसी अवसाद के |

होना है तुम्हें फीनिक्स
ओ मृतप्राय पल !
जाओ और बनो मेरी मुक्ति के देवदूत
मुझे जन्म लेना है अभी तुम्हारी राख से |

नोचनी हैं भूतकाल से, वर्तमान से, आगत से
वो शंख-ध्वनियाँ
जो फूँक सकें 

फिर से पान्जन्य-शंख
मेरी शिराओं में दौड़ सकें 

रक्त के फव्वारे
मेरी रीढ़ में गढ़ सकें बाँस
ताकि सीधी होकर मेरी पीठ
देख सके तुम्हारी प्रश्न्चिन्हित आँखों को
दे सके तुम्हारे
हर उचित - अनुचित प्रश्न का उत्तर | |




.............गीता पंडित..................

Friday, December 2, 2011

द्रवित हुआ जाता है मन .... गीता पंडित

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चुप्पी साधे बैठी है वो 
घाव कई तन पर दिखते,
फटी आँख से देख रही है 
जाने क्या मन पर लिखते ,
झाडू कटका करती दिनभर 
भरी दोपहरी तोड़े पत्थर, 
पीकर रौंदे देह रात-भर 
नयनों से अश्रु हैं झरझर ,
मन में सोच रही है जाने 
ऐसे कैसे रीत रही  |

ये कैसा पुरुषत्व है भद्दी
गाली सा लगता सिन्दूर 
आज खड़ी है चौराहे पर 
मन-मिट्टी का खोया नूर  
आत्म कहाँ मर जाता है यों 
पशुता को भी लांघ रहे 
उसी कोख से पैदा होकर 
उसी कोख को जांच रहे |
सिसक रही है काया उसकी  
मन पर ये क्या बीत रही ||

गीता पंडित