Tuesday, August 5, 2008

हर सुबह लेकर जो आये ....

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हर सुबह लेकर जो आये भोर की पहली किरण,
जाग उठें फिर से मन के,खोये हुए सारे सपन,
आस्था और नेह की, बाती जले, जलती रहे,
और थोड़ी सी महक ,दे जाये बासंती - पवन,


धूप को आना है आये, तुम उसे ना रोकना,
छाँव बनकर विटप की मन, अपने ऊपर ओढना,
हाँ थकाने आयेंगे पल अंक में भर-भर हिमालय,
स्वेद-कण मोती की मानिंद,हौले - हौले पोँछना,


ऐसे सौरभ की घड़ी, फिर से ना आये क्या पता,
आज है जो गीत-सरिता, कल भी होगी क्या पता,
बाँध लो मन इन पलों को,आज शब्दों के वसन में,
और उतारो गीत में फिर, प्रीत की आकाश - गंगा ||


गीता पंडित (शमा)

5 comments:

रश्मि प्रभा... said...

इतने विलक्षण भाव,मैं तो बस पढ़ती चली जा
रही हूँ,बहुत बढिया ........
वाह वाह वाह कहने का दिल करता है

Kavi Kulwant said...

Sundar rachna! Man-mohak

Sajeev said...

गीता जी मुबारक बाद बढ़िया ब्लॉग बनाया है, और कविता तो आपकी हमेशा ही excellent होती है, लिखते रहिये और बताते रहिये

praveen pandit said...

"धूप को आना है आये, तुम उसे ना रोकना,
छाँव बनकर विटप की मन,अपने ऊपर ओढना,
हाँ थकाने आयेंगे पल अंक में भर-भर हिमालय,
स्वेद-कण मोती की मानिंद,हौले-हौले पोँछना,"


गीता जी! जब आप स्वयं से बोल रहीं होती हैं तो
इतने छायादार गीत रूपी विटप का सृजन
होता है।

लेखनी मोहक शक्ति से भरपूर है।

प्रवीन पंडित

महावीर said...

पहली बार आपकी साईट पर आया हूं। एक से एक सुंदर काविता पढ़ने को मिली।
छायावादी कवियों की यादें ताज़ा कर दी।
घटित चाहे कुछ भी हो जाये, जीवन चलता जाता है,
लेख अमिट हैं जन्म-मृत्यु के, कोई बदल ना पाता है,
मन जो कुसुमित होता है तो,आता हर पल गा गा कर,
या फिर बन दिनकर दहके, साँझ ढले पिघला जाता है।।
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कौन से थे वो बिंदु जिसमें,
उलझ कर मन रह गया,
एक पिपासित चातक बनकर,
शब्दो मे क्यूँ बह गया,
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अनजाने पथ का पथिक अरे ,डगर भूल ना जाना मन !
शाम ढले सूरज चल देता, तुझको भी चलना है मन ।
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हाय ! रह ना पाती, मन की सुंदरता न्यारी,
पग-पग पर वो,अपनी ही मृग-तृष्णा से हारी,
जग मिथ्या,केवल जनम-मरण की एक निशानी,
माटी का तन, हर पल लिखे, एक नयी कहानी ||
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प्रत्येक कविता जैसे स्वयं बोल रही हो।
बधाई स्वीकारें।