भाव तुम्हारे तुम्हें समर्पित, अंतर्मन के धारे हैं, गीतों में भरकर जो आये मन के वेद उचारे हैं||
Thursday, May 26, 2011
कौन कहाँ अपना होगा ...
"जीवन ही जब सपना है तो, सपना तो सपना होगा ,
कौन घाट पर उतरेगा अब, कौन कहाँ अपना होगा ,
सबकी ढपली अपनी - अपनी राग सभी के हैं अपने ,
फिर भी इस जीवन की ख़ातिर साँसों को जपना होगा||"
.गीता पंडित.
Friday, May 20, 2011
शब्द - दीप
....
.....
शब्द क्या ये दीप हैं जो रैन में हमने जलाये.
देख पूनम के निखर के बैन सारे फिर से आये
खिल गयी है चांदनी, तारे फिर से मुस्कराये,
भोर की देकर दुहाई साथ मेरे फिर से गाये | |
..गीता पंडित..
.....
शब्द क्या ये दीप हैं जो रैन में हमने जलाये.
देख पूनम के निखर के बैन सारे फिर से आये
खिल गयी है चांदनी, तारे फिर से मुस्कराये,
भोर की देकर दुहाई साथ मेरे फिर से गाये | |
..गीता पंडित..
Sunday, May 8, 2011
Friday, May 6, 2011
" माँ " ....
...
....
नाम
तुम्हारा आते ही माँ !
मन में बदली छा जाती है |
नेह पत्र पर
लिखे जो तुमने
भाव अभी हैं आज अनूठे
बेल लगी है
संस्कार की
सजा रही जो मन पर बूटे,
बूटे -
बूटे नेह तुम्हारा
मन की छजली भा जाती है |
देह कहीं भी
रहे मगर माँ
मन तो पास तुम्हारे रहता
शैशव में जो
रूई धुनी थी
कात उसे संग-संग में बहता
शब्दों
में आकर हौले से
मन की सजली गा जाती है |
गीता पंडित
....
नाम
तुम्हारा आते ही माँ !
मन में बदली छा जाती है |
नेह पत्र पर
लिखे जो तुमने
भाव अभी हैं आज अनूठे
बेल लगी है
संस्कार की
सजा रही जो मन पर बूटे,
बूटे -
बूटे नेह तुम्हारा
मन की छजली भा जाती है |
देह कहीं भी
रहे मगर माँ
मन तो पास तुम्हारे रहता
शैशव में जो
रूई धुनी थी
कात उसे संग-संग में बहता
शब्दों
में आकर हौले से
मन की सजली गा जाती है |
गीता पंडित
Wednesday, May 4, 2011
तुम्हारे बिन .....गीता पंडित
....
.....
बरसकर भी ना बरसे जो
न जाने कैसी बदली है,
नयन की कोर पर अटकी
सपन की भोर गीली है,
तुम्हारी याद का सावन
घिरा है आज फिर से क्यूँ
बना है पाखी मन फिर से,
धरा की भोर सीली हैं |
ना जाने क्यूँ नहीं आये
कहा था आऊँगा एक दिन
तुम्हारे बिन समझ लो तुम
नहीं संध्या सहेली है ,
चले आओ नहीं लगता कि
ये अब मन तुम्हारे बिन
तुम्हारे रंग से ही मीत !
मन चूनर ये पीली है | |
..गीता पंडित..
.....
बरसकर भी ना बरसे जो
न जाने कैसी बदली है,
नयन की कोर पर अटकी
सपन की भोर गीली है,
तुम्हारी याद का सावन
घिरा है आज फिर से क्यूँ
बना है पाखी मन फिर से,
धरा की भोर सीली हैं |
ना जाने क्यूँ नहीं आये
कहा था आऊँगा एक दिन
तुम्हारे बिन समझ लो तुम
नहीं संध्या सहेली है ,
चले आओ नहीं लगता कि
ये अब मन तुम्हारे बिन
तुम्हारे रंग से ही मीत !
मन चूनर ये पीली है | |
..गीता पंडित..
Sunday, May 1, 2011
यही सब ...
...
.....
हाँ !!!! तोड़ना है
छंद की रूढ़ियों को
रचना है इतिसास नया
ताकि मुक्त होकर
गा सकूं तुम्हें
निर्द्वंद, निर्पेक्षित, निरंतर
व्यूह रचा गया था
जान गया था अभिमन्यु
पर नहीं जानता था
उससे बाहर आना |
मुझे जाननी होगी
बाहर आने की कला
ताकि गढे जा सकें
नये - किले
मरम्मत की जा सके
जीर्ण - शीर्ण इमारतों की |
शब्द को देकर पहचान नयी
मैं लिख सकूं वो कविता
जो मेरे मन ने चाही
मेरी नदी से प्रस्फुटित हो
और प्रेम की भागीरथी बन
उतरे तुम्हारे मन - आकाश में ||
.. गीता पंडित ..
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