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कभी रूठकर सो जाती है
कभी टूटकर खो जाती है
कैसी है ये मन की मैना
फिर भी सपने बो जाती है .
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किसने अलख जगाया जोगी
द्वार रैन के उजियारी है
पात-सुमन से बातें करती
भोर लगी कितनी प्यारी है .
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गीता पंडित
1 comment:
"कैसी है ये मन की मैना
फिर भी सपने बो जाती है"
लाजवाब - आभार
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