Thursday, October 4, 2012

इतने ऊंचे उड़े गगन में ...... गीता पंडित (एक नवगीत )


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इतने ऊंचे उड़े गगन में
पंख कटे सिसकायें
मन की खूंटी
टंगे हुए हैं 
किसको ये दिखलायें


धमनी-धमनी बिखर गये हम 
नस-नस में विष फैले
प्रीत मांगती
भिक्षा डोले
मीरा से मन दहले
    
सात-समंदर पार बस गये
बँगला पैसा गाड़ी
घर की ड्योढ़ी
रस्ता देखे
कटी हुई हैं नाड़ी

बिना पलस्तर दीवारों में
मन कैसे
हुलसायें


लैपटॉप में सिमट रह गया
जन-मानस का प्यार  
सूनी अँखियाँ
बेवा जैसे
भूल चलीं त्यौहार

हास खो गया मान खो गया
राख हुई नैतिकता
चिंगारी हर      
पल सुलगाये
कहाँ गई मौलिकता

किसको देखें किसे दिखाएँ
खुद मन को
बहलायें 


वृद्धाश्रम खुल गये कि देखो
अपने हुए बिराने
बूढ़ी अँखियाँ
खोज रही हैं
किसको अपना माने

ये कैसी ऊंचाई जिसने
मन-तन को है बाँटा
ममता बिलख
रही है मन में
अंतर पर है चाँटा

प्रेम बिना निस्सार है जीवन 
किसको ये 
सिखलाएँ


गीता पंडित 
दिल्ली 


5 / 9 / 2012


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