Sunday, June 3, 2012

एक नवगीत ... झुलसे नन्दन वन ... गीता पंडित



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झुलसे नन्दन – वन ____



हाहाकार मचा है भीतर  
अधरों पर है सूखापन
ऊपर टंगी
हुई है आँखें
अम्बर लाये रूखापन  

तपते सूरज ने झुलसाया
गात सुनहरा तक्त हुआ
अम्बुआ की डाली का झूला
मौन हुआ अभिशप्त हुआ
तकुवे सी
चुभती महंगाई
गर्मी लाई सीने में
छुन-छुन करता
गर्म तवे सा
मनवा हुआ पसीने में

सबसे जाकर
बतियाते हैं
चल ले आयें नन्दन-वन

आपाधापी के इस युग में
चैन कहाँ आराम कहाँ
साध बड़ी है महानगर की
छोटी नगरी काम कहाँ
सालों साल
बिताते तन्हा
करें प्रतिक्षा दम साधे
गर्मी तन-मन  
को झुलसाए
पीर जिया को है बाँधे

ओ रे बदरा !
सुन लो अब तो
चल ले आयें अमृत घन


गीता पंडित


साभार 

2 comments:

surenderpal vaidya said...

'अरे ओ बदरा
सुन ले अब तो
चल ले आएं अमृत घन'

गर्मी मेँ तो बादल ही ठण्डक पंहुचा सकते हैं ....!
सुन्दर भावपूर्ण रचना ।

दिगम्बर नासवा said...

भाव पूर्ण नव गीत है ... आज की रचना है ... बहुत सुन्दर ...