Saturday, January 14, 2012

मेरे कुछ मुक्तक कुछ शेर .... गीता पंडित

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था दिया बनवास मैंने खुद ही अपनी कामना को

आज फिर से भावना के द्वार पर इकली खड़ी हूँ

क्या पता है मेरा मुझको जानना बेहद ज़रूरी


अपने मन की चौखटों से आज फिर इकली लड़ी हूँ || 

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पीर भरी मैं पाती कोई 


गीत प्रेम के गाती हूँ 


हरेक मन की पीड़ा गाकर 


पीड़ा में मुस्काती हूँ  |
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देह केवल मात्र रह गयी, जबकि कब वो देह थी


मन की शाला देखी किसने वो तो केवल मेह थी |
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पूजन की थाली को शब्दों 


का अर्चन भा जाता है 


गीतकार जब कोई छन्दों 


में जीवन गा जाता है |
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सुना था कल शहर में, गश्त पर थी बर्फ बारी 

कौन वो घुटने समेटे सुबह को था चल बसा  |









चलो हम नेह की नदियाँ कहीं से फिर बहा लाएँ 


सुना है आज सूखे से हर एक बस्ती विरानी है | 
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तुम भी सही थे मैं भी सही , कुछ तो था जो सही नहीं था 

देख लकीरें सोच रही हूँ, मिलना क्यूँ कर बदा नहीं था ...

अंग - अंग पर देख बन गयी है फुलकारी अब क्या सोचें 

नाम तुम्हारा मन पुस्तक से अब भी क्यूँकर कटा नहीं था |



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गीता पंडित 


( फेसबुक पर भी हैं ये मेरे स्टेटस पर )

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