कुछ यूँ ही मेरी लेखनी से __
कहीं से हम बहा लाएँ चलो फिर नेह की नदियाँ
सुना है आज सूखे से हरेक बस्ती विरानी है |
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तुम भी सही थे मैं भी सही , कुछ तो था जो सही नहीं था
देख लकीरें सोच रही हूँ, मिलना क्यूँ कर बदा नहीं था ...
अंग - अंग पर देख बन गयी है फुलकारी अब क्या सोचें
नाम तुम्हारा मन पुस्तक से अब भी क्यूँकर कटा नहीं था ...
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आपकी पायल के घुँघरू सुन ना पाये हम कभी
है प्रतीक्षा मेरे घर पर तुम कभी तो आओगी
झीनी सी इस चूनरी को, है सम्भाला यत्न से
एक दिन मैं कहती तुमसे साथ तुम भी गाओगी |
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उम्रभर लिखता रहा जो खत वो वापस आ गये
ज़िंदगी ! तेरा पता बदला था कब अनजान हूँ
मैं यही था मैं यहीं हूँ, पर ना जाने क्या हुआ
जिंदगी ! तेरे ही घर में, आज मैं महमान हूँ | |
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जीवन क़ागज़ की एक पुड़िया
उस पुड़िया में प्रेम भरे कण
वही हरेक जन को मिल जायें
बोल और क्या चाहे रे मन !
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ओस की बूँदें पड़ीं जो धरती के तपते तवे पर
धूआँ ऐसा फैला देखो, हर दिशा कुहरा गयी ...
कभी-कभी पीड़ा की पायल ऐसे सुर में बज उठती है
सारे स्वर मध्यम हो जाते एक अकेला स्वर है भाता
मीरा के एकतारे पर तब गुनगुन करके मनवा गाता
कौन सुनहरी चादर ओढ़े मन को आकर है सहलाता |
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"रख देना दो शब्द अगर अधर मूक हो जाएँ तो,
हर मन के द्वारे जाकर सुमन एक तो रख देना " .
गीता पंडित
( ये मेरे फेसबुक पर भी स्टेटस हैं....)