Sunday, April 17, 2011

सुर सजाकर फिर से लायें ....

सोचते क्या सुर सजाकर फिर से लायें
हम बुजुर्गों को हंसाकर फिर से लायें |


इस धुंधलके में भला क्या दिख रहा है
चल चले सूरज उठाकर फिर से लायें |


मातमी धुन है सभी कुछ बिक रहा है
चल चलें खुशियाँ सजाकर फिर से लायें |


हैं अधर चुपचाप आतुर बोलने को
चल चलें शब्दों की गागर फिर से लायें |


नयन हैं रीते बड़े बेकल से " गीता "
चल चले सपनों की चादर फिर से लायें ||



गीता पंडित

3 comments:

सहज साहित्य said...

सुर सजाकर फिर से लाएं -रचना में आपने तमाम विषम परिस्थितियों मे जीवना की गरमाहट को बनाए रखने का सन्देश दिया है बहुत बधाई गीता जी

गीता पंडित said...

जी...यही तो जीवन है ... हर विषम परिस्थिति
में भी धैर्य रखकर आगे बढते जाना ...

रुकना नहीं...
डूबना नहीं....
वरन जूझना...


स्नेह
गीता

गोपाल कृष्ण शुक्ल said...

आज के सामाजिक परिवेश से पीडित मनोदशा, अन्तर्द्वन्द और अक्षमता की स्थिति को बहुत सलीके से उजागर किया.....
बहुत-बहुत बधाई गीता जी...