Saturday, September 27, 2008

मन - मंथन....

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बेकल मन की बेकल बातें, मन में ही रह जाती हैं,
सुर गीतों को दे ना पातीं, मन ही मन पछताती हैं,
क्या भूलें क्या याद करें नित,मन-मंथन गहरा करके,
नयनों के काजल को, धीमे से गीला कर जाती हैं।


चंचल और वाचाल आँख,चुपचाप सभी कुछ सहती है
टिक जाती है एक बिंदु पर, टिकी वहीँ बस रहती है,
विवेक भूलकर नीर-क्षीर का,कहाँ - कहाँ खोई रहती,
बेसुध मन से आकर आशा, ना जाने क्या कहती है।


नभ को आँखों में भरकर, नित नयी ऊर्जा पाती है,
मौन अधर पर नेह की वंशी जाने क्या लिख जाती है
टूटे पल-पल जोड़-जोड़कर मन फिर से बुनता सपने,
हाथ लगा माटी को एक, आकार नया दे जाती हैं ।


घटित चाहे कुछ भी हो जाये, जीवन चलता जाता है,
लेख अमिट हैं जन्म-मृत्यु के, कोई बदल ना पाता है,
मन जो कुसुमित होता है तो,आता हर पल गा गा कर,
या फिर बन दिनकर दहके, साँझ ढले पिघला जाता है।।

गीता पंडित (शमा)

18 comments:

रश्मि प्रभा... said...

घटित चाहे कुछ भी हो जाये, जीवन चलता जाता है,
सच है जीवन का ...... और इस सत्य के बीच की भावनाएं अनमोल हैं

वेद प्रकाश सिंह said...

namaste...bahut hi sahi tarah se man ka manthan kiya hai aapne...ek bahut hi khubsurat kavita padhne ko mili.bahut kuchh sikha bhi maine..shukriya mam

!!अक्षय-मन!! said...

ये नहीं कहूंगा की मुझपर शब्द नहीं हैं इस रचना के लिए इसे मैंने मन में सजोया है और मन में छुपे मर्म को आप भली भांति जानती हैं ....
क्यूंकि ये तो मन-मंथन से निकला एक भावः कलश है..............

admin said...

Achchee kavita hai, babdayi.

नदीम अख़्तर said...

घटित चाहे कुछ भी हो जाये, जीवन चलता जाता है,
लेख अमिट हैं जन्म-मृत्यु के, कोई बदल ना पाता है

मैंने इन पंक्तियों को पढ़ने के बाद कुछ याद करने की कोशिश की, तो आपकी शैली और स‌ुमित्रा नंदन पंत जी (1900-1977) की शैली करीब-करीब एक लगी। इनकी दो पंक्तियां यहां शाया कर रहा हूं, उम्मीद है आपको भी पसंद आयेंगी।

उड़ गया, अचानक लो, भू-धर
फड़का अपार, पारद के पर
रव-शेष रह गये हैं निर्झर
है टूट पड़ा भू पर अंबर

ये पंक्तियां मैंने एनसीईआरटी की एक दसवीं की पाठ्य पुस्तक स्पर्श स‌े उठायी हैं। मुझे आपकी कविता इतनी अच्छी लगी कि मैं स‌ुमित्रा जी को याद करने लगा और खोज कर उनकी एक कविता पढ़ी, तब मुझे तसल्ली मिली। आपको इस रचना के लिए बधाई भी नहीं दे स‌कता, क्योंकि मैं खुद इसकी योग्यता नहीं रखता।

vijay kumar sappatti said...

aapki ye nazm padkar main bahut gahre soch mein pad gaya ..

aapki poori nazm hi apne aap mein ek mahagatha si hai

bahut accha likhti hai aap

bahut badhai

vijay
http://poemsofvijay.blogspot.com/

धीरेन्द्र पाण्डेय said...

bahut hi kubsurti se apni rachna ko piroyaa hai ....

manu said...

sahi lay uthaaye huye ek sunder kavitaa

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

सुन्‍दर गीत है, एक बार फिर से बधाई देने से खुद को रोक नही पा रहा हूं।

Divya Narmada said...

भाव भरी अभिव्यक्तियाँ, मन को भाई खूब.
कविता का रस 'सलिल' ने, पाया उसमें डूब.
सहज सरल शैली रहा, पाठक मौन सरह.
शिल्प बिम्ब को समझकर बरबस निकले वाह.

-दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम देखिये, टिप्पणी दीजिये, रचनाएँ 'सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम पर भेजिए.
मन हो तो संपादक मंडल से जुड़िये.

Science Bloggers Association said...

मन को मथने में सक्षम गीत। इस गम्भीर प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई।
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जादू की छड़ी चाहिए?
नाज्का रेखाएँ कौन सी बला हैं?

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

सही कहा आपने, मन को बेकल करने वाली बातें मन ही रह जाती हैं। इस सुंदर रचना के लिए बधाई।
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खुशियों का विज्ञान-3
ऊँट का क्‍लोन

M VERMA said...

हाथ लगा माटी को एक, आकार नया दे जाती हैं ।
bahut sunder

स्वप्न मञ्जूषा said...

sundar kriti aapki
atisundar abhivyakti..
shubhkamna..

स्वप्न मञ्जूषा said...

वाह!अद्भुत रचना....

स्वप्न मञ्जूषा said...
This comment has been removed by the author.
Anonymous said...

नयनों के काजल को, धीमे से गीला कर जाती हैं।
.....
मौन अधर पर नेह की वंशी जाने क्या लिख जाती है
....
या फिर बन दिनकर दहके, साँझ ढले पिघला जाता है।।
रेखांकित करने के लिए और भी बहुत कुछ है. बहुत-बहुत सुंदर रचना - आभार और बधाई.

गीता पंडित said...

आप सभी की सुंदर भावनाओं के लियें
ह्रदय से आभारी हूँ...


शुभ-कामनाएँ

सस्नेह
गीता पंडित