Monday, May 7, 2007

मंजिल....

......
.......

तुमने ये सब क्या कहा.
मुझसे सुना जाता नहीं,
आँख मैं आते हैं आँसू,
कुछ नजर आता नहीं.

तेरे सजदे मैं पङी हैं..,
आरज़ू मेरी सभी.....
जिनको एक-एक कर चुना था,
तेरे लियें मैने कभी.........

अब तो मुझसे आईना भी
हो गया है अजनबी.....
पूँछता है मुझसे वो.......,
तू कहाँ पर खो गई,........

आज भी मेरी समझ मैं
बात ये आई नहीं.........
क्या ?और कैसी थी मैं,
आज क्या मैं हो गई.......

कह-कशों की भीङ थी.,
सपनों की बारिश थी कभी,
आज फ़िर ये हाल क्यूँ.....,
नीँद भी आती नहीं........

ए - शमा - तू ही बता...,
मंजिल कहाँ पर है मेरी.....
ढूँढती है रूह भी.....,
बरसों से है सोई कहीँ.......

शमा (गीता)

1 comment:

Gaurav Shukla said...

आपने तो हृदय के सारे भाव उडेल दिये हैं
जरा मुझे बताइयेगा कि ऐसा अद्भुत, मर्मस्पर्शी कैसे लिखा जा सकता है
अग्रिम धन्यवाद गीता जी
नमन

सस्नेह
गौरव शुक्ल