Monday, July 28, 2014

चाँद निकला है.. ..गीता पंडित

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चाँद निकला है.. 
वो कहते 
ईद है 

सबकी देखो 
अपनी - अपनी 
ईद है 

बिन तुम्हारे .....
कैसे बोलूं 
ईद है 

दीद हो जाये .......
तो मेरी 
ईद है
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गीता पंडित
29/7/2014

Tuesday, July 22, 2014

मन और समय को शब्द देते गीता के नवगीत ......नरेंद्र दुबे





 नवगीत विधा की समर्पित हस्ताक्षर  
 
 
हिंदी नवगीत विधा में एक समर्थ और समर्पित नाम है -गीता पंडित। पूर्व में ' मौन पलों का स्पंदन ' और 'अब और नहीं बस ' जैसे बेहतर नवगीत संग्रह समाज को समर्पित कर चुकी गीता जी का नया नवगीत संकलन ' लकीरों के आर - पार ' हमारे सामने है। स्व का विस्तार लोक तक पहुँचाने में कवियत्री सफल रही है। गीता के गीतों में काव्य संस्कार , परंपरा बोध ,सरस बयानी ,और गरुङ दृष्टि अभिव्यक्त होती है। जग की पीड़ा को शब्द देना उनका मकसद है -' हरेक मन की पीड़ा गाकर / पीड़ा में / मुस्काती हूँ /…पीर भरी मैं पाती कोई / गीत से मन सहलाती हूँ /' संकलन के सारे गीत बेहतर रवानी देते है ,वे समय और परिवेश को बेबाकी से अभिव्यक्त करती है। बहुत दिनों बाद उम्दा नव गीत पढ़ने को मिले। जिनने अंतर्मन को छुआ। शलभ प्रकाशन दिल्ली ने सुन्दर आवरण और सुरुचि पूर्ण संयोजन के साथ पुस्तक का प्रकाशन किया है। गीता पंडित जी को सुन्दर सृजन के लिए बधाई और मंगलकामना है वे उत्तरोत्तर साहित्य को समृद्ध करती रहे। - नरेंद्र दुबे


मन और समय को शब्द देते गीता के नवगीत 
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                गीत से नवगीत की यात्रा में एक और समर्थ एवं समर्पित नाम जुड़ा है- गीता पंडित का। पूर्व में मन तुम हरी दूब रहना’ काव्य संग्रह और मौन पलों का स्पंदन’ जैसा बेहतर नवगीत संग्रह समाज को समर्पित कर चुकी गीता पंडित का नया नवगीत संकलन लकीरों के आर-पार’ हमारे सामने है। इस संग्रह के नवगीत अपनी चेतना में समयसमाज और परिवेश को गहरी संवेदनशीलता के साथ अभिव्यक्त करते हैं। गीत विधाकाव्य में परम्परा का नाम है और नवगीतपरम्परा के साथ प्रगतिशील चेतना का उन्नयन। गीता पंडित का काव्य सृजन भी इसी भाव-धारा का है। वे जड़ों से जुड़ाव भी रखती हैं और आधुनिकता में प्रगति के सोपानों पर चढ़ने में गुरेज नहीं रखतीं। संकलन में उनके गीतों के पट  खुलते उसके पूर्व एक खाली पृष्ठ पर माँ वीणा-पाणी का गरुड़ आरूढ़ छोटा सा चित्र है और कोई शब्द नहीं। यह चित्र ही गीता पंडित के काव्य संस्कारपरम्परा बोधसरस बयानी और  गरुड़ दृष्टि को अभिव्यक्त कर देता है।

                कवयित्री के मन-मानस में नवगीत इस तरह रचा-बसा है कि वह आमुख में भी अपनी बात गद्य की ठेठ भाषा में न कहकर गद्य-काव्य की सरसता में पाठक से कहती है। कृतज्ञता से लबरेज गीता पंडित ने अपनी इस कृति को नवगीत सृजन की प्रेरणा देने वाली साहित्यकार पूर्णिमा वर्मन को समर्पित किया है। सुश्री पूर्णिमा वर्मन ने ही इस संग्रह की सुन्दर और यथेष्ठ भूमिका लिखी है। उन्होंने बगैर किसी बौद्धिक लगा-लपेट के गीता के काव्य व्यक्तित्व और सृजन धर्मिता पर कम शब्दों में अर्थपूर्ण बात कह दी है।

                जब सृजन-यात्रा में अनुभूति की सच्चाई और लोक की पीड़ा को शब्द दिए जाते हैं तो रचना समय और परिवेश को व्यक्त करने लगती है और रचनाकर्म अपनी सार्थकता सिद्ध करता है। गीता पंडित की रचना धर्मिता में सामाजिक सरोकारों की प्रधानता है। जग की पीड़ा को शब्द देना ही उनका अभीष्ट है- हरेक मन की पीड़ा गाकर / पीड़ा में/मुस्काती हूँ।...पीर भरी मैं पाती कोई / गीत से मन/सहलाती हूँ। संकलन के सारे गीत बेहतर रवानी देते है ,वे समय और परिवेश को बेबाकी से अभिव्यक्त करती हैं। बहुत दिनों बाद उम्दा नव गीत पढ़ने को मिले। जिन्होंने अंतर्मन को छुआ।                 

लकीरों के आर-पार’ की पहली कविता ही ये कैसा बंटवारा’ हमारी व्यवस्था एवं समाज में व्याप्त अन्याय एवं असमानता पर करारा प्रहार है। गीत का बिम्ब काली पट्टी बंधी आँख पर / दिखता नहीं नजारा / ये कैसा बंटवारा ’ महाभारत से लेकर आज के भारत तक का दृश्य सामने ला देता है। आँख पर काली पट्टी अँधे राजा धृतराष्ट्र की रानी गांधारी और आधुनिक न्याय की देवी दोनों का चित्र उपस्थित कर देती है। यानी अन्याय का सिलसिला पुराना है। दरअसल यहां मेहनतकश श्रमिक की पीड़ा बयान की है। एक अन्य कविता में किसान की हकीकत को भी यूं कहा है-जो जीवन देने की खातिर / अपना रक्त / बहाता है / क्या मिलता है उसको जग में / यूं ही वो / ढह जाता है 

                गीता जी को नये वर्ष का आगमन हमेशा उत्साहित करता है और वे उल्लास और आशा भरी भावनाएं पाठकों को समर्पित करती हैं। नये साल पर उनकी एकाधिक कविताएं हैं। नई आस / विश्वास आस्था ’ के पथ पर नयी रश्मियों से मुलाकात कराती हैं। कवयित्री जीवन में उजास की पक्षधर हैं। वे पाठक को मृत्यु के दर्शन से भी अवगत कराती हैं-आपाधापी चहूँ ओर है / अफरा-तफरी भारी / जाने कब / किसकी हो जाये / मृत्यु याचिका जारी ’ साथ ही फिर दिन फिरेंगे’ में आस का दीपक भी जला देती हैं।  वक्त को शब्द देता रचनाकार सामाजिक विद्रूपताओं से कैसे किनारा कर सकता है। गीता जी ने तकनीक और नए चलन के कारण दूर होते अच्छे जीवन पर भी चिन्ता व्यक्त की है-

कुंज गली वो नेह की बतियाँ / रास रंग सब खोया / प्रगति सारी कम्प्यूटर में / नेह कहां अब   सोया 

                कवयित्री ने आजादी के लिए अपनी जान लुटाने वाले शहीदों को याद कर नई पीढ़ी को आगाह किया है-करें प्रण आज हम फिर से / ना भूलेंगे वो कुर्बानी / कि जिसके वास्ते / देखो लहू हमने बहाया है ’ हिंसा और आतंक के दौर में गांधी दर्शन की प्रासंगिकता का जिक्र है-

गांधी की करनी-कथनी की / समता को हम भूल रहे / प्रेम अहिंसा / के धागों को / तोड़ कहां पर झूल रहे  

                समीक्ष्य संकलन की रचनाओं में विषय वैविध्य है और जिंदगी के हर पहलू पर कवयित्री की नजर है। महानगरीय जीवन में रिश्तों के खालीपन को उन्होंने शिद्दत से महसूस किया है और वृद्धाश्रमों में जा रहे बुजुर्गों को देख वे कराह उठती हैं। वे कहती हैं-

एक फ्लैट में / सिमट रहा है / सारा जहां अजाना / रिश्तों की चूड़ी टूटी है / घाव करे मनमाना ’ 

गीता जी के नवगीतों में प्रेम-सौंदर्य की सदानीरा बहती है तो रूहानी अंदाज भी है। सपनों की / आदत खराब है / सांकल नहीं बजाते/’ इस गीत में कजरी-चैती गाती  सखियां उन्हें याद आती हैं। मन से टूटे लोगों को वह यूं आस बंधाती हैं-

प्रेम कहां / कब बूढ़ा होता / फिर से गायें गीत प्रेम के 

                मन की व्यथा बांचने और समय की गति नापने में कवयित्री निष्णात है। वे खो गई कविता के बावत कहती हैं- कोसों दूर / चली है मन से / मस्तक के हैं स्वर आलापे / दिल की बस्ती / है बंजारन / कैसे मन की जगति नापे ’ गीता पंडित के समीक्ष्य संकलन की बानगी के रूप में यदि केवल एक गीत पढ़ना हो तो वह है-मन की खूंटी टंगे हुए हैं। इस नवगीत में घरपरिवारसमाज और परिवेश सब कुछ समाहित है और उनकी अपनी सृजन क्षमता भी। गीत में समाहार देती हैं कि प्रेम बिना / निस्सार है जीवन / किसको ये सिखलायें 

                समग्र रूप से कहें तो समीक्ष्य संकलन के अधिकांश गीत भाषा सौष्ठवशब्द प्रयोगबिम्ब विधान और शिल्प की दृष्टि से बेहतर पायदान पर खड़े हैं। उनकी रचनाओं में कृत्रिमता नहीं है। वे शहर में रहकर गांवकस्बों की बात नहीं करतीं। जो देखा भोगा उसे अभिव्यक्त किया है। हांदो-एक गीतों में एक बात खटकती है कि कवयित्री जिस तरह गीत में उठान लेती हैं और आगे तक उसका निर्वाह भी करती हैंउस तरह उपसंहार की बेला में सरसता नहीं रह पायी। थोड़ी सी चूक सुधरेगी तो उन गीतों में भी भाव संप्रेषण उम्दा होगा।

                रचना से रचनाकार को जानना किसी काव्य-व्यक्तित्व को जानने की श्रेष्ठ विधि है। लकीरों के आर-पार’ के नवगीतों से गुजरने के बाद बेहिचक कह सकते हैं कि गीता पंडित परिपक्व और काव्य संभावनाओं से ओतप्रोत रचनाकार है। उनकी कहन और भाव बोध उम्दा है। भाषा की सादगी और सरलता के कारण उनके नवगीतों में संप्रेषणीयता हैजो उन्हें सार्थकता देती है।

शलभ प्रकाशन दिल्ली ने सुन्दर आवरण और सुरुचि पूर्ण संयोजन के साथ पुस्तक का प्रकाशन किया है। गीता पंडित जी को सुन्दर सृजन के लिए बधाई और मंगलकामना है वे उत्तरोत्तर साहित्य को समृद्ध करती रहें |                 

मेरा विश्वास है उनकी रचनाएं हिन्दी काव्य जगत में सहर्ष समादृत होंगी।
                                                                                                                                                                                                                                                                नरेन्द्र दुबे
                                                   गार्ड लाइन दमोह म.प्र.                                                                                                                                                                                                                                                                                                              
                                                                                                                                                                                                                                                                                                 
लकीरों के आर-पार
गीता पंडित , 
शलभ प्रकाशनदिल्ली
210 रुपये ,
 मो. 9810534442

Monday, July 7, 2014

दीवानों सी हालत है ........गीता पंडित

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दीवानों सी हालत है 
लानत और मलानत है 

धर्म की बातें करता है 
धर्म कहाँ कब जानत है 

इक रोटी की खातिर ही 
मेहनत औ महारत है 

बादल कब तक रूठोगे 
धरती रोज़ मनावत है

'गीता'किसकी बात करे 
अपने पर ही लानत है 
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गीता पंडित
७/७/१४ 

Thursday, July 3, 2014

बस इत्ता भर ... (एक कविता) ......गीता पंडित

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अनंत यात्रा पर होता है तन 
कितने शहर 
कितने पथ 
कितने चौराहे 

कितने लोग 
जाने अनजाने 
कुछ कद में बड़े तो मन से छोटे
कुछ तन से छोटे और मन से बड़े 

अगम्य सुरंगें 
अगम्य नदियाँ 
ताल झरनों से गुज़रता हुआ 
भूल जाता है अपने गंतव्य को 

खोया-खोया सा स्वयं से करता है प्रश्न 
कहाँ जाना था 
कहाँ आ गया 

अनुत्तरित प्रश्न 
अनुत्तरित जीवन 

चार कहार 
और अजानी सी अंतिम यात्रा 

अहो !!!!!!!

बस इत्ता भर मिलना 
बिछुड़ना 
मिलना

निरंतर यात्रा में
होता है जीवन 
....... 




गीता पंडित 
3 / 7 / 14