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बन सकी क्या प्रीत मोती
मन की सीपी में जङी ।
नयन की है देह कैसी
कैसे सागर भर गया,
पल की काया को भिगोता
मन का झरना छल गया,
रह गयीं हैं सिलवटें बस
पल की चादर पर पङी ।
मन की कोमल पांखुरी क्यूँ
ओस में भीगी रहे,
और अंतर में मचलती
मन-कली झूझी रहे,
रह क्यूँ जाती ड़ाल सूखी
मन के आँगन में खङी ।
अनकहे पल रैन की स्याही में
सन कर आ रहे,
शब्दों में भरकर ना जाने
कैसे क्या-क्या गा रहे,
ढूँढते सुर बांसुरी जो
प्रीत में जाकर अङी,
गीता पंडित
3 comments:
नयन की है देह कैसी
कैसे सागर भर गया,
पल की काया को भिगोता
मन का झरना छल गया,
bilkul sach kaha hai aapne .
bahut hi shandar rachanaa hai .....
aapki rachanaaoo me bhavon ka achchha samavesh rahataa hai .... aanand aa gayaa ............ shubhkamanayen.....
"मन की कोमल पांखुरी क्यूँ
ओस में भीगी रहे,
और अंतर में मचलती
मन-कली झूझी रहे,
रह क्यूँ जाती ड़ाल सूखी
मन के आँगन में खङी।"
मनोभावों से सराबोर उत्कृष्ट कविता - मेरी समझ से सही मायने में जो "कविता" कहलाने की हकदार है - हार्दिक बधाई तथा आभार
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