धन्य
हुई स्त्री आज एक दिन तो कम से कम उसे सम्मानित किया गया | एक दिन की
साम्राज्ञी
बनाया गया | उसके लियें जय - जयकार के नारे लगाए गये जिसने उम्रभर
संस्कारों को
जिया | घूँट - घूँट समर्पण को पिया | बंद कमरे, बंद तहखानों में बिन
हवा धूप रोशनी
के स्वयं को भुलाकर तुम्हें केवल तुम्हें स्मरण किया | आहा !!!! तालियाँ
बजानी चाहियें उसे आज वो कृतग्य हुई |
यही
हुआ हमेशा कभी लक्ष्मी, कभी देवी दुर्गा पूजनीया बनाकर अस्तित्व ही छीन लिया |
उसमैं
स्त्री कब रही उसे याद नहीं | केवल भोग्या, दासी, इंसान कब समझा गया ? हर
काल में,
हर हाल में समर्पिता होकर भी समर्पण को तरसती रही, घुट्ती रही | क्या कहूँ
बहुत
क्षोभ है, बहुत पीड़ा है आक्रोश है, फिर भी प्रेम है तुमसे |
स्त्री
यानी आधी आबादी, पराये तो पराये अपनों से ही त्रस्त, अपनों से ही खौफज़दा |
ओह!!!!!
अपनों पर भी विश्वास न कर पाये तो कहाँ जाये, किससे कहे, कैसे सहे, कैसे
निबटे ?
घर या बाहर हर जगह असुरक्षित |
लेकिन
कितना भी तोड़ो, नोचो खसोटो, आघात करो उन अंगों पर जहाँ से तुम्हें जन्म
मिला है वो
न टूटेगी न, न अंधेरों को अपना साथी बनाएगी |
वो
देह नहीं मन है, विचार है | निडर हो जियेगी | वो सृष्टा है, निर्मात्री है सृष्टि
की |
फिर से निर्माण करेगी एक नयी सृष्टि का, जहाँ वह स्त्री होने का सुख भोग सके,
और
गर्व कर सके अपने जननी होने पर | आमीन !!!!!!
गीता पंडित
8 फरवरी 2013
http://fargudiya.blogspot.in/2013/03/blog-post_12.html