Friday, March 16, 2012

"मौन पलों का स्पंदन " गीता पंडित के नवगीत संग्रह पर .... सईद अयूब..

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मीर की एक 
गज़ल थी कोई 
या मीरा मन 
की गाथा,
जाने कहाँ भटक
कर खो गई
वो मेरे मन
की राधा. (गीता पंडित)

आजकल गीता पंडित के गीतों/नवगीतों के संग्रह “मौन पलों का स्पंदन” से पुनः गुज़र रहा हूँ और जैसे-जैसे इस संग्रह से गुज़रता जाता हूँ, कशिश और बढ़ती जाती है. न जाने क्यों (हो सकता है ऐसा सिर्फ़ मुझे लगता हो) गीतों और नवगीतों के प्रति समकालीन हिंदी कविता का रुख उपेक्षा भरा है जबकि गीत हमारे समाज, जीवन और कविता के अभिन्न अंग रहे हैं, हैं, और रहेंगे भी. मुझे लगता है कि यह उपेक्षा जानबूझ कर अपनाई गयी है. गीत लिखना, छंदों का उचित व्यवहार करना, स्वर का ध्यान रखना, तुक बैठाना आदि-आदि एक छंदमुक्त (या छन्द से मुक्त) कविता लिखने की अपेक्षा कहीं अधिक कठिन है. मैं यह नहीं कह रहा कि छंदमुक्त कविता लिखना बहुत आसान है किंतु उसकी तुलना में गीत लिखना अधिक कठिन है. और संभवतः, इसी कठिनता के कारण गीत-लेखन को उपेक्षा का शिकार होना पड़ा है जबकि गीत अपनी बहुत सहज संप्रेषणीयता के कारण, छंदमुक्त कविता कि तुलना में लोगों के दिलोदिमाग और ज़बान तक बहुत आसानी से पहुँच जाते हैं. गीतों को याद रखना और उन्हें गुनगुनाना जितना आसान है, उसकी रचना उतनी ही मुश्किल. 



गीता पंडित जैसे लोग यदि गीतों की साधना में लगे हुए हैं तो आवश्यकता है कि हम उन्हें याद करें, उनके काम को भी महत्व और सम्मान दें और उनको और उनके गीतों को भी कविता पर होने वाली बहसों में शामिल करें. 
गीता जी का एक नवगीत आप सबकी नज़र करता हूँ...

शब्द गीले
हो ना जायें
इसलिए मैं मौन हूँ,
मौन में भी कह सकूँगी.

है ह्रदय वट
पर लिखा
प्रीत का जो
पृष्ठ पहला,
गूँजता है कोर
पर आ
नयन की कैसा
अकेला,

बंद मन की
सीप में
मोती बनी मैं रह सकूँगी.

शब्दों का दे
आवरण अब
प्रीत को
आकार दूँगी,
मन की गागर
में भरी हर
भावना को
वार दूँगी,

झूमते लय ताल
सुर को
रागी मन में सह सकूँगी
......



मौन में भी कह सकूँगी..
---‘प्रीत का जो पृष्ठ पहला’
पुस्तक- मौन पलों का स्पंदन (गीत-नवगीत संग्रह), गीतकार- गीता पंडित, प्रकाशक- काव्य प्रकाशन, हापुड़

Tuesday, March 6, 2012

पड़ी रंगों की बौछारें ....... गीता पंडित

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पड़ीं रंगों की बौछारें सब सखियाँ डोल गयीं
लाज के सारे पहरे देखो 
पल में खोल गयीं |

भर पिचकारी 
मार रहे हैं सखा सभी मिल जुलकर
काले नीले पीले चहरे रंग हाथ में भर कर
लगा रहे इक दूजे पर सब हँसी ठिठोली करके
आँखों में पतवार नेह की
नौका पर चढ़ चढ़कर

पाँव थिरकने लगे कि झांझर 
संग में बोल गयीं |

कैसा ये 
मौसम है जिसमें झर गये पीले-पात
होली का उत्सव है लाया नेह रंगीले प्रात
रंग भरे सपने हैं आये रंग भरी मनुहारें
झूम रहे हैं सब नर नारी
हो गये ढीले गात
    
याद पिया की आकर नयनों 
को अनमोल गयीं ||



 गीता पंडित 


साभार  http://www.anubhuti-hindi.org/ से 
  

सभी को होली के विशेष उत्सव पर रंगभरी अशेष शुभ कामनाएँ और बधाई .... गीता ..