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बेबस क्यूँ बेजान हूँ मैं,
अब कह दो इंसान हूँ मैं |
बाहर - बाहर पिघली हूँ
अंदर से चट्टान हूँ मैं |
अंदर भीड़ बड़ी भारी ,
बाहर से सुनसान हूँ मैं |
बाहर है संग्राम बड़ा
अंदर एक पहचान हूँ मैं |
मेरे जुलाहे! कात मुझे
रूई धागा शमशान हूँ मैं |
.गीता पंडित ,
भाव तुम्हारे तुम्हें समर्पित, अंतर्मन के धारे हैं, गीतों में भरकर जो आये मन के वेद उचारे हैं||
Monday, September 19, 2011
Thursday, September 8, 2011
एक गज़ल ........ गीता पंडित
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सुबह से साँझ तक खपकर हम इतना कमाते हैं
मिले दो जून की रोटी, इक सपना सजाते हैं |
उमर की शाख पे देखो , ये बरगद पुराना है
कहें किससे बिना छत के हम सोने न पाते हैं |
घने जंगल उगे कीकर, लहु रिसता है श्वासों से
जहाँ भी चाह मिलती घर वो अपना बनाते हैं |
कहाँ है रुक्मणी बोलो घर जिसने सजाया है
समर्पण की विधा भूले , राधा कृष्ण गाते हैं |
मुखौटे ओढ़कर जीना 'गीता' कब हमें आया
जिसे भी हम बुलाते हैं, दिल से ही बुलाते हैं |
.... गीता पंडित..
Friday, September 2, 2011
धुंधाती अंखियों में देखो ...गीता पंडित ( एक नवगीत )
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चट्टानी
प्राचीरों पर भी
नव-चित्रों की
कथा सुनाये |
किरण-किरण
फैले उजियारा
मन ये भोर सुनहरी पाये |
समय थपेड़े
मारे चलता
कोई उसको कुछ समझाये,
श्रम की रोटी
खाने वाले
कैसे भूखे मरते आये,
लिखने को लिख
गये ग्रंथ हैं
आँसू अब भी आँखों में हैं,
कितने भी
जुलूस निकालो,
दर्द कमल की पाँखों में है,
मैं भी बोलूँ
तुम भी बोलो
पीड़ा मन की छँटकर आये |
यौवन अल्हड
भरी जवानी
अंग-अंग एक गीत बना है,
लेकिन ये क्या
फटे - चीथड़े
हर चौराहा रक्त सना है,
नेह जले है
रातों - रातों
जीवन की रचना भी खोई,
धुंधाती
अंखियों में देखो,
पनप रहा है सपना कोई,
चुपके से ये
रात रुपहली
वेष बदलकर दिनकर लाये |
चट्टानी
प्राचीरों पर भी
नव-चित्रों की कथा सुनाये |
गीता पंडित
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