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बन सकी क्या प्रीत मोती
मन की सीपी में जङी ।
नयन की है देह कैसी
कैसे सागर भर गया,
पल की काया को भिगोता
मन का झरना छल गया,
रह गयीं हैं सिलवटें बस
पल की चादर पर पङी ।
मन की कोमल पांखुरी क्यूँ
ओस में भीगी रहे,
और अंतर में मचलती
मन-कली झूझी रहे,
रह क्यूँ जाती ड़ाल सूखी
मन के आँगन में खङी ।
अनकहे पल रैन की स्याही में
सन कर आ रहे,
शब्दों में भरकर ना जाने
कैसे क्या-क्या गा रहे,
ढूँढते सुर बांसुरी जो
प्रीत में जाकर अङी,
गीता पंडित