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सूर्य की किरणों तले
एक घर बसा दूँ तो चलूँ
आज धीरज फिर से मैं मन को बंधा दूँ तो चलूँ
ये बहारें भी हरा कब
कर सकी है इस धरा को
मन की सूखी-ठूँठ पर किसलय उगा दूँ तो चलूँ
जा रहे हो तुमको मैं
आवाज़ दे सकती नहीं
फिर भी चुपके से तुम्हें अपना बना दूँ तो चलूँ
जलते हैं दीपक सभी
रात ये मिट्ती कहाँ है
भोर की हर इक सुबहा पथ में बिछा दूँ तो चलूँ
है अधर ख़ामोश ‘गीता’
नयन बेकल पथ निहारें
आज थोड़ा सा मैं फिर से मुस्करा दूँ तो चलूँ
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गीता पंडित
1 सितम्बर 12.