Saturday, September 27, 2008

मन - मंथन....

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बेकल मन की बेकल बातें, मन में ही रह जाती हैं,
सुर गीतों को दे ना पातीं, मन ही मन पछताती हैं,
क्या भूलें क्या याद करें नित,मन-मंथन गहरा करके,
नयनों के काजल को, धीमे से गीला कर जाती हैं।


चंचल और वाचाल आँख,चुपचाप सभी कुछ सहती है
टिक जाती है एक बिंदु पर, टिकी वहीँ बस रहती है,
विवेक भूलकर नीर-क्षीर का,कहाँ - कहाँ खोई रहती,
बेसुध मन से आकर आशा, ना जाने क्या कहती है।


नभ को आँखों में भरकर, नित नयी ऊर्जा पाती है,
मौन अधर पर नेह की वंशी जाने क्या लिख जाती है
टूटे पल-पल जोड़-जोड़कर मन फिर से बुनता सपने,
हाथ लगा माटी को एक, आकार नया दे जाती हैं ।


घटित चाहे कुछ भी हो जाये, जीवन चलता जाता है,
लेख अमिट हैं जन्म-मृत्यु के, कोई बदल ना पाता है,
मन जो कुसुमित होता है तो,आता हर पल गा गा कर,
या फिर बन दिनकर दहके, साँझ ढले पिघला जाता है।।

गीता पंडित (शमा)