Thursday, March 31, 2016

हाँ दिन यूँ ही ढल जाता है....गीता पंडित

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यूँ तो कुछ ना रुक पाता है,
हाँ दिन यूँ ही ढल जाता है।

 
प्रीत बावरी ! मन के पन्नों
पर ना जाने क्या लिख जाती,
मीरा बन मन की पनिहारिन
प्रीत कूप जल भरने जाती,


प्रीत बिना मन जल जाता है,
हाँ दिन यूँ ही ढल जाता है । 

भोर न गाये राग सुबह का
दोपहरी तन धूप बनाये,
मन की माटी का हर दीपक
दिपदिप करके बुझता जाये,

बुझता दीपक खल जाता है,
हाँ दिन यूँ ही ढल जाता है। 

गीता पंडित 
1 / 4 / 16 


(2007 का लिखा हुआ )

Tuesday, March 22, 2016

चेहरे हुए गुलाल .... गीता पंडित

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रंग लगाकर

पालथी बैठ गये हर पोर

द्वारे ड्योढ़ी

गा उठे करें खिड़कियाँ शोर

 

 

बाट जोहती

गलियों के चेहरे हुए गुलाल

ढोल बजाता जब आया टेसू

हीरा लाल

 

उचक-उचककर

वेणियाँ हाथ हिला मुसकाय

शर्माता वो नील रंग छुप-छुप

कर बतियाय

 

धडकन ने ताली

बजा बाँधी जीवन डोर

 

गली-गली के

हाथ में पिचकारी भरपूर

भाँग चढाकर आँगना हुआ

नशे में चूर

 

दीवारों के

तन सजे सतरंगी परिधान

सपनों की चौपाल पर छाई

रंगी शान

 

नर्तन फिर

करने लगी श्वास-श्वास हर छोर |

गीता पंडित
दिल्ली
15 मार्च 2016